Friday, December 28, 2012

बस्तर, बारसूर और गंग-राजवंश – बिखरी कडियाँ।


किसी समय ओड़िशा के जगन्नाथपुरी क्षेत्र के राजा गंगवंशीय थे। राजा की छ: संतानें उनकी व्याहता रानियों से थी तथा एक पुत्र दासी से उत्पन्न था। अनेक घटनायें अतीत के पन्नों में दर्ज है जहाँ राजा प्रेम अथवा वासना में इस तरह डूबा रहा करता कि अंतत: गणिकाओं, दासियों तथा नगरवधुओं नें उनसे अपनी मनमानियाँ करवायी हैं तथा सत्ता पर अपने परिजनों अथवा पुत्र को अधिकार दिलाने में सफल हो गयी हैं। इस गंगवंशीय राजा नें भी यही किया तथा दासी पुत्र सत्ता का अधिकारी बना दिया गया। छ: राजकुमार राज्य के बाहर खदेड दिये गये। इनमें से एक राजकुमार नें अपने साथियों के साथ किसी तत्कालीन शक्तिहीन हो रहे नल-राजाओं के गढ महाकांतार के एक कोने में सेन्ध लगा दी तथा वहाँ बाल-सूर्य नगर (वर्तमान बारसूर) की स्थापना की।

यह कथा तिथियों के अभाव में इतिहास का हिस्सा कहे जाने की अपेक्षा जनश्रुतियों की श्रेणी में ही वर्गीकृत रहेगी। पं. केदारनाथ ठाकुर (1908) नें अपनी किताब “बस्तर भूषण (1908)” में इस घटना का इतिहासिक तथ्य की तरह वर्णन किया है। इसे बस्तर के इतिहास की शून्यता में कई स्थानों/तिथियों में जोडने की गुंजाईश दिखती है। पहली संभावना बनती है नल राजा स्कंदवर्मन (475-500 ई.)की मृत्यु के बाद; चूंकि इसके पश्चात लम्बे समय तक नल शासन का उल्लेख प्राचीन बस्तर के अब तक उपलब्ध एतिहासिक प्रमाणों से प्राप्त नहीं होता। प्राय: शक्तिशाली राजाओं की संततियाँ विरासत को संभाल पाने में नाकाबिल साबित होती रही हैं। अत: हो सकता है कि  इसी समय वाकाटकों नें पुन: नलों को परास्त किया हो। यह संभावना है कि वाकाटक नरेश हरिषेण नें स्कंदवर्मन के पश्चात के शासको को परास्त कर राज्य विस्तार किया होगा। इसी समय में पूर्वी गंग नाम के एक राजवंश के शक्तिशाली हो कर उदित होने की जानकारी भी प्राप्त होती है। यह विश्वास किया जा सकता है कि वाकाटक नरेश हरिषेण की आधीनता में ही पूर्वी गंग त्रिकलिंग के शासक बने तथा वे वाकाटकों व आन्ध्र के शासकों के बीच प्रतिरोधक का कार्य करते रहे।

प्राचीन बस्तर पर शासन करने वाले गंग राजाओं नें स्वयं को त्रिकलिंगाधिपति कहा है अत: यह समझना आवश्यक हो जाता है कि यह प्राचीन भूगोल में किस क्षेत्र का परिचायक है। त्रिकलिंग का उल्लेख पहले-पहल ग्रीक-यूनानी लेखकों की इतिहास लेखन के उद्देश्य से रची गयी कृतियों में मिलता है। ग्रीक लेखक प्लीनी नें कलिंग को गंगरिदेसकलिंगे, मक्को कलिंगे एवं कलिंग नामक तीन उपविभागों में बाँटा है। पूर्वीगंगों के ताम्रपत्रों में उन्हें त्रिलिंगाधिपति घोषित किये जाने का अनेको बार उल्लेख मिलता है। त्रिकलिंग एवं कलिंग पर गंग राजाओं के आधिपत्य का विवरण वज्रहस्त पंचम, राजराज प्रथम एवं चोडगंग के ताम्रपत्रों में मिलता है। चोड़गंग के ताम्रपत्र एक कथा की ओर इशारा करते हैं कि गंग राजाओं की वंशावली राजा कामार्ण्णव से प्रारंभ होती है जिन्होंने अपने चार भाईयों की सहायता से एक नये राज्य की स्थापना की जिसे त्रिकलिंग कहा गया। दानपत्रों के उल्लेख त्रिकलिंग को कलिंग के पश्चिम में अवस्थित सिद्ध करते हैं। त्रिकलिंग क्षेत्र की व्याख्या अनेक इतिहासकार/विद्वानों नें अपने अपने तरह से की है। कुछ इतिहासकार इसे तीन राज्यों का सम्मिलित क्षेत्र मानते हैं जैसा कि कनिंघम का मंतव्य है जिनके अनुसार धनकट, अमरावती व आन्ध्र मिला कर त्रिकलिंग बनते हैं। फ्लीट त्रिकलिंग को गंगा के मिहाने तक प्रसारित मानते हैं जबकि कीलहार्न प्राचीन तेलंगाना को  ही त्रिकलिंग मानते हैं। डीसी गाँगुली त्रिकलिंग के अंतर्गत उत्तरी कलिंग (गंजाम); दक्षिणी कलिंग (गोदावरी क्षेत्र) तथा मध्य कलिंग (विशाखापट्टनम) मानते हैं। शक संवत 1280 के श्रीरंगम ताम्रपत्र के अनुसार त्रिकलिंग के पश्चिम में महाराष्ट्र, पूर्व में कलिंग, दक्षिण में पाण्डय देश एवं उत्तर में कान्यकुब्ज हैं – “पश्चात पुरस्तादपि यस्य देशौ ख्यातौ महाराष्ट्रकलिंगसंज्ञो:। आर्वादुदक पाण्ड्यकान्यकुब्जौ देशो स्मतत्रापि तिलिंगनामा”। उपरोक्त विवरणो से त्रिकलिंग के पृथक व एक स्वतंत्र राज्य होने का उल्लेख बनता है जिसे गंग राजाओं नें बसाया होगा तथा यह प्राचीन बस्तर की कुछ भूमि समेत कोरापुट व कालाहाण्डी क्षेत्रों के लिये संयुक्त रूप से प्रयोग में लाया जाने वाला नाम रहा होगा। इस सत्य की सबसे अधिक ठोस रूप में पुष्टि ओडिशा म्यूजियम, भुवनेश्वर में संरक्षित रखे ब्रम्हाण्डपुराण के ताडपत्र से होती है जिसमे एक श्लोक त्रिकलिंग क्षेत्र की स्पष्ट जानकारी प्रदान करता है। इस श्लोक का अंतिम शब्द ताडपत्र में अस्पष्ट है तथापि इसके अनुसार झंझावती से वेदवती नदी के मध्य का क्षेत्र त्रिकलिंग है जबकि इससे लग कर अर्थात झंझावती से ऋषिकुल्या तक का क्षेत्र कलिंग है – अषिकुल्यां समासाद्य यावत झंझावती नदी, कलिंग देशख्यातो देशाना गर्हितस्तदा। झंझावतीं सभासद्य यावद वेदवती नदी, त्रिकलिंगड़गीति ख्यातो...”। झंझावती, नागवल्ली नदी की सहायक सरिता है जबकि वेदवती इन्द्रावती का उपनाम। अत: विवादों को दृष्टिगत रखते हुए भी इस समहति पर पहुँचना होगा कि प्राचीन बस्तर क्षेत्र पर पूर्वीगंग वंश का शासन 498 – 702 ई. के मध्य रहा होगा।

गंगवंश का प्रथम ज्ञात राजा इन्द्रवर्मन है जिसने अपने जिरजिंगी दानपत्र (537 ई.) में स्वयं को त्रिलिंगाधिपति कहा है। इसका राज्य क्षेत्र समुद्रतट तक विस्तृत बताया जाता है। दूसरा गंग राजा सामंतवर्मन था जिनका पोन्नुतुरू दानपत्र भी उन्हें त्रिलिंगाधिपति घोषित करता है। सामंतवर्मन की राजधानी सौम्यवन थी जिसे वर्तमान श्रीकाकुलम जिले में वंशधारानदी के तट पर अवस्थित माना जाता है। सामंतवर्धन के पश्चात राजा हस्तिवर्मन का उल्लेख नरसिंहपल्ली ताम्रपत्र तथा उरलाम दानपत्र से प्राप्त होता है। हस्तिवर्मन द्वारा त्रिलिंगाधिपति के स्थान पर सकलकलिंगाधिपात उपाधि धारण करने का उल्लेख मिलता है तथा उनके द्वारा कलिंगनगर को राजधानी बनाया गया था। हस्तिवर्मन का उत्तराधिकारी इन्द्रवर्मन द्वितीय था जिसके समय में त्रिकलिंग के दक्षिणी क्षेत्रों पर चालुक्य राजा पुलकेशिन द्वितिय नें अधिकार कर लिया था। इसके पश्चात गंगवंशीय राजा इन्द्रवर्मन तृतीय का उल्लेख मिलता है जिसने 632 ई. में तेकाली पत्र जारी किया था। एक अन्य अभिलेख में देवेन्द्रवर्मन का चिकाकोल पत्र (681 ई.) प्राप्त हुआ है। गंगवंशीय अंतिम प्राप्त अभिलेख है देवेन्द्रवर्मन के पुत्र अनन्तवर्मन का धर्मलिंगेश्वर दानपत्र (702 ई.) जिसके पश्चात इस राजवंश का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता है

दुर्गमतम क्षेत्र होने के कारण प्राचीन बस्तर के इतिहास को एक क्रम में देखने से कई समस्यायें आ जाती है। हम काल निर्धारण करते हुए पूरी तरह आश्वस्त नहीं रह सकते तथापि यह मान सकते हैं कि स्कन्दवर्मन के पश्चात  नल वंश का महाकांतार में पतन होने लगा; अत बिना किसी बड़े प्रतिरोध के गंग राजवंश जो कि दण्ड़क वन क्षेत्र में “बाल सूर्य” (वर्तमान बारसूर) नगर और उसके निकटवर्ती क्षेत्रों में सीमित था अब महाकांतार क्षेत्र का वास्तविक शासक बन गया। इस राजवंश की शासन-प्रणाली तथा राजा-जन संबंधों पर बात करने के लिये समुचित प्रमाण, ताम्रपत्र अथवा शिलालेख उपलब्ध नहीं हैं तथापि गंग राजाओं का स्थान बस्तर की स्थापत्य कला की दृष्टि से अमर हो गया है। बालसूर्य नगर की स्थापना के पश्चात गंग राजाओं नें अनेकों विद्वानों तथा कारीगरों को आमंत्रित किया जिन्होंने राजधानी में एक सौ सैंतालीस मंदिर तथा अनेकों मंदिर, तालाबों का निर्माण किया। गंगमालूर गाँव से जुडा “गंग” शब्द तथा यहाँ बिखरी तद्युगीन पुरातत्व के महत्व की संपदाये गंग-राजवंश के समय की भवन निर्माण कला एवं मूर्तिकला की बानगी प्रस्तुत करती हैं। बारसूर मेंअवस्थित प्रसिद्ध मामा भांजा मंदिर गंग राजाओं द्वारा ही निर्मित है। कहते हैं कि राजा का भांजा उत्कल देश से कारीगरों को बुलवा कर इस मंदिर को बनवा रहा था। मंदिर की सुन्दरता ने राजा के मन में जलन की भावना भर दी। इस मंदिर के स्वामित्व को ले कर मामा-भांजा में युद्ध हुआ। मामा को जान से हाँथ धोना पड़ा। भाँजे ने पत्थर से मामा का सिर बनवा कर मंदिर में रखवा दिया फिर भीतर अपनी मूर्ति भी लगवा दी थी। आज भी यह मंदिर अपेक्षाकृत अच्छी हालत में संरक्षित है। आज का बारसूर ग्राम अपने खंड़हरों को सजोए अतीत की ओर झांकता प्रतीत होता है।

बारसूर नगर के एतिहासिक अतीत को देखते हुए उसके संरक्षण के लिये किये जाने वाले कार्यों की सराहना करनी होगी। अभी जो प्रयास हुए हैं उनके तहत कुच प्राचीनमंदिर व भव्य प्रतिमायें अगली पीढी के लिये बचा ली गयी हैं तथापि बहुत कुछ किया जाना अभी शेष है। यह नगर इतिहासकारों व पुरातत्वविदों की समग्रदृष्टि तथा विषद शोध की माँग करता है तभी हम गंग वंशीय अतीत पर प्रामाणिकता से कुछ कहने की स्थिति में होंगे। बारसूर वैसे भी प्राचीन मंदिरों व भग्नावशेषों से पटी पडी नगरी है जो स्वयं को पढे और पुन: गढे जाने की राह तक रही है।

Wednesday, December 19, 2012

नल युगीन बस्तर के अविस्मरणीय नायक थे स्कंदवर्मन

सान्ध्य दैनिक ट्रू सोल्जर में 18.12.12 को प्रकाशित
इतिहास की पडताल करने पर नलयुगीन शासक स्कंदवर्मन (475-500ई.)विलक्षण नायक नज़र आते हैं। उन्हें विरासत में एक ध्वस्त राजधानी तथा मुट्ठी भर साथी ही मिले थे। इससे विचलित हुए बिना उन्होंने न केवल नल सत्ता को पतन से उबारा अपितु पुन: उसके गौरव की भी स्थापना की। वह नल साम्राजय जिसे सम्राट समुद्रगुप्त नें अपने आधीन कर लेने के बाद भी एक स्वतंत्र सत्ता बनाये रखा था वस्तुत: अर्थपति भट्टारक (460-475ई.)के समय के आते आते कमज़ोर हो गया था। अर्थपति एक विलासी शासक प्रतीत होते हैं, कदाचित व्यसनी। वे आम जनता का विश्वास और सहानुभूति खो चुके थे और बहुतायत समय सुरा-सुन्दरी में डूबे हुए ही व्यतीत करते थे। इतिहास गवाह है कि एसे शासक कभी भी सत्ता पर पकड़ नहीं बनाये रख सके हैं। मध्य क्षेत्र में अत्यधिक शक्तिशाली वाकाटक नरेशों को एसे ही समय की प्रतीक्षा लम्बे समय से थी। वाकाटक नरेश पृथ्वीषेण (460-480ई.)नें नलों की राजधानी नन्दिवर्धन पर तीन दिशा से हमला कर दिया। यह इतना शक्तिशाली हमला था कि अंतत: अर्थपति भट्टारक को अपनी राजधानी छोड कर भागना पड़ा। अपनी बार बार पराजय तथा असफलताओं से त्रस्त वाकाटक राजा इतने उद्वेलित थे कि पृथ्वीषेण नें नल साम्राज्य को जड़ से उखाड देने के संकल्प के साथ ही आक्रमण किया था। अर्थपति नल साम्राज्य की प्राचीन राजधानी पुष्करी की ओर भागे लेकिन वहाँ तक भी उनका पीछा किया गया। स्वयं पृथ्वीषेण अपनी सेना के साथ पुष्करी पहुँचे और इस नगरी को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया गया। एक-एक प्रासाद और मकान तोड़ दिया गया। इसके बाद पृथ्वीषेण ने अर्थपति भट्टारक को उसके हाल पर छोड़ दिया और वह नव-विजित राजधानी नन्दिवर्धन लौट आया।   

अर्थपति गहन विषाद में रहने लगे। वे ध्वस्त राजधानी और कदमों से नापी जा सकने जितनी भूमि पर बची सत्ता के साथ रह गये थे। मदिरा ने साथ नहीं छोड़ा इसलिये शीघ्र ही शरीर ने साथ छोड़ दिया। अर्थपति के निधन के बाद उनके छोटे भाई स्कंदवर्मन का अत्यधिक साधारण समारोह में राजतिलक किया गया। यह राजतिलक केवल परम्परा के निर्वाह के लिये ही था क्योंकि उनके पास न तो भूमि थी न ही कोई अधिकार। कहते हैं संयमी और दूरदर्शी व्यक्ति कभी हौसला नहीं खोते तथा केवल लक्ष्यदृष्टा होते हैं। स्कंदवर्मन ने अपने विश्वासपात्र साथियों के साथ खुले वातावरण में बैठक की तथा अपने दिवास्वप्न से मित्रो को अवगत कराया। वे महाकांतार से वाकाटकों को खदेड़ कर नल-राज पताका पुन: प्रशस्त करना चाहते थे। सभी साथी हँस पडे; यह असंभव था। वह तथाकथित राजा जो इस समय पत्थर पर बैठ कर चन्द साथियों को सम्बोधित कर रहा हो महान वाकाटक सत्ता को खदेड़ना चाहता था – नितांत असंभव ही तो था।  

क्या उन्होंने दिवास्वप्न देखा था? स्कंदवर्मन एक कुशल योजनाकार थे; अद्भुत संगठन क्षमता थी उनमें।  वे स्वयं घर घर पहुँचने लगे। उनका चित्ताकर्षक व्यक्तित्व और प्रखर वक्ता होना शनै:-शनै: कार्य करने लगा। राजधानी से दूर महाकांतार की सीमाओं में रह रही प्रजा को सैन्य-प्रशिक्षण दिया जाने लगा। बीस सैनिकों की संख्या दो सौ में बदली। दो सौ सैनिकों की संख्या दो हजार तक पहुँची और दिन प्रति दिन नागरिक जुटते रहे। वाकाटक राजाओं को कमजोर करने का कार्य उनकी जन-विरोधी नीतियों नें भी स्वत: कर दिया था। वाकाटकों से असंतुष्ट धनाड्यों ने चुप-चाप स्कंदवर्मन तक आर्थिक मदद भी पहुँचायी। पहले छापामार शैली में छुट-पुट आक्रमण किये गये। छोटी छोटी जीत, शस्त्रों और सामंतों के पास संग्रहित करों की लूट से प्रारंभ हुआ अभियान अब स्वरूप लेने लगा। वाकाटकों के आधीन अनेकों सामंतो ने अवसर को भांपते हुए अपनी प्रतिबद्धता बदल ली। महाकांतार के आधे से अधिक भाग से पृथ्वीषेण खदेड़ दिये गये, नल-त्रिपताका का गौरव लौटने लगा। इधर राजा पृथ्वीषेण की मृत्यु के पश्चात वाकाटक और भी कमजोर हुए थे; ज्येष्ठ पुत्र देवसेन नें महाकांतार की सत्ता संभाल ली थी। 

अपनी ओर बढते हुए खतरे को भाँप कर नन्दिवर्धन किले को सुरक्षित करने में स्वयं राजा देवसेन ने रुचि ली; किंतु चिड़िया के खेत चुगने के बाद। स्कंदवर्मन के हाँथियों ने नन्दिवर्धन किले के मुख्यद्वार को धकेलना आरंभ किया ही था कि राजधानी को साँप सूंघ गया। देवसेन के लिये यह समझ पाना ही कठिन हो रहा लगा था कि कैसे इतने अल्पकाल में नल पुन: शक्तिशाली हो गये हैं। मुख्य द्वार तोड़ दिया गया। पैदल सैनिक शोर करते हुए किले के भीतर घुस आये। पीछे पीछे घुड़सवार सैनिकों ने मोर्चा संभाला हुआ था। तभी महल के उपर ‘श्वेत-ध्वज’ लगा दिया गया। सुसज्जित हाँथी पर लगे स्वर्ण हौदे पर आसीन हो कर स्कंदवर्मन ने नन्दिवर्धन किले के भीतर प्रवेश किया। देवसेन को उसी शैली में  निर्वासित कर दिया गया जैसा हश्र कभी अर्थपति भट्टारक का हुआ था। अपने पुत्र हरिषेण और कुछ विश्वासपात्र साथियों के साथ वे कोशल की ओर भाग गये।    

यह घटना प्राचीन अवश्य है किंतु इसकी प्रासंगिकता में लेशमात्र भी कमी नहीं आयी है। जनता उसी के साथ खडी होती है जो स्वयं जमीन से आ कर जुडे। यही किसी आन्दोलन का प्राचीनतम स्वरूप है तथा एसे ही आज भी संघर्ष होते हैं। इस उदाहरण का यह अर्थ नहीं निकाला जाना चाहिये कि उसी महाकांतार क्षेत्र में आज जारी माओवादी आतंकवाद को जन-संघर्ष कह दिया जाये। हमे यह समझना चाहिये कि क्रांतिकारी कनपट्टी पर बन्दूक धर दिये जाने से पैदा नहीं होते। क्रांति का अंतिम लक्ष्य भले ही वैश्विक हो तथापि वह अपने नितांत क्षेत्रीय व लौकिक कारणों की उपलब्धता के बाद ही किसी क्षेत्र में पनप सकती है। स्कंदवर्मन एक जननायक इस लिये थे क्योंकि वे जुडना जानते थे जिसके लिये आम जन की निजता, उनके सरोकारों, उनकी मान्यताओं, उनकी परम्पराओं की हत्या करने की आवश्यकता नहीं है जैसा कि वर्तमान में माओवादी कर रहे हैं। एक जननायक को एक आम आदिवासी का वैसे ही बन जाने की आवश्यकता है जैसे कि वे स्वयं हैं। कंधे पर बंदूख की बट मार मार कर लाये जाने वाले बदलाव कभी शास्वत नहीं हो सकते अपितु इससे एक भटका हुआ समाज जन्म लेगा जो अपनी जडों से बलात काट दिये जाने के कारण नितांत अदूरदर्शी और घातक हो सकता है। बस्तर में स्कंदवर्मन को पहला जन नायक कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी तथा वाकाटकों को महाकांतार अर्थात प्राचीन बस्तर क्षेत्र से खदेडने को पहली सफल क्रांति भी कहा जा सकता है। यह भी उल्लेखनीय है कि नल राजाओं का शासनकाल जन-प्रियता तथा स्थिरता के लिये जाना जाता है चूंकि उनमें जमीन से जुडे होने की दक्षता विद्यमान थी। 

Monday, December 17, 2012

लाला जगदलपुरी जी को उनके जन्मदिवस की हार्दिक शुभकामनायें



बस्तर और लाला जगदलपुरी पर्यायवाची शब्द हैं [आलेख] 
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यह असाधारण सत्य है कि छत्तीसगढ राज्य का बस्तर क्षेत्र अगर किसी एक व्यक्ति को अपनी साहित्यिक-सांस्कृतिक पहचान के रूप में जानता है तो वह लाला जगदलपुरी हैं। तिरानबे वर्ष की आयु, अत्यधिक क्षीण काया तथा लगभग झुक चुकी कमर के बाद भी लाला जी अपनी मद्धम हो चुकी आँख को किसी किताब में गडाये आज भी देखे जाते हैं। अब एक छोटे से कमरे में सीमित दण्डकारण्य के इस ऋषि का जीवन असाधारण एवं अनुकरणीय रहा है। लाला जगदलपुरी दो व्यवस्थाओं के प्रतिनिधि हैं; उन्होंने राजतंत्र को लोकतंत्र में बदलते देखा तथा वे बस्तर में हुई हर उथलपुथल को अपनी पैनी निगाह से जाँचते-परखते तथा शब्दबद्ध करते रहे। वह आदिम भाषा हो या कि उनका लोक जीवन लाला जी से बेहतर और निर्पेक्ष कार्य अब तक किसी नें नहीं किया है। डोकरीघाट पारा का कवि निवास लाला जगदलपुरी के कारण एक पर्यटन स्थल बना हुआ है तथा एसा कोई बुद्धिजीवी नहीं जो बस्तर पर अपनी समझ विकसित करना चाहता हो वह लाला जी के चरण-स्पर्श करने न पहुँचे। लाला जी की व्याख्या उनका ही एक शेर बखूबी करता है - 

एक गुमसुम शाल वन सा समय कट जाता,
विगति का हर संस्करण अब तक सुरक्षित है। 

मिट गया संघर्ष में सबकुछ यहाँ लेकिन, 
गीतधर्मी आचरण अब तक सुरक्षित है। 
(मिमियाती ज़िन्दगी दहाड़ते परिवेश – 1983)

रियासत कालीन बस्तर में राजा भैरमदेव के समय में दुर्ग क्षेत्र से चार परिवार विस्थापित हो कर बस्तर आये थे। इन परिवारों के मुखिया थे - लोकनाथ, बाला प्रसाद, मूरत सिंह और दुर्गा प्रसाद। इन्ही में से एक परिवार जिसके मुखिया श्री लोकनाथ बैदार थे वे शासन की कृषि आय-व्यय का हिसाब रखने का कार्य करने लगे। उनके ही पोते के रूप में श्री लाला जगदलपुरी का जन्म 17 दिसम्‍बर 1920 को जगदलपुर में हुआ था। लाला जी के पिता का नाम श्री रामलाल श्रीवास्तव तथा माता का नाम श्रीमती जीराबाई था। लाला जी तब बहुत छोटे थे जब पिता का साया उनके सिर से उठ गया तथा माँ के उपर ही दो छोटे भाईयों व एक बहन के पालन-पोषण का दायित्व आ गया। लाला जी के बचपन की तलाश करने पर जानकारी मिली कि जगदलपुर में बालाजी के मंदिर के निकट बालातरई जलाशय में एक बार लाला जी डूबने लगे थे; यह हमारा सौभाग्य कि बहुत पानी पी चुकने के बाद भी वे बचा लिये गये। 

लाला जी का लेखन कर्म 1936 में लगभग सोलह वर्ष की आयु से प्रारम्भ हो गया था। लाला जी मूल रूप से कवि हैं। उनके प्रमुख काव्य संग्रह हैं – मिमियाती ज़िन्दगी दहाडते परिवेश (1983); पड़ाव (1992); हमसफर (1986) आँचलिक कवितायें (2005); ज़िन्दगी के लिये जूझती ग़ज़लें तथा गीत धन्वा (2011)। लाला जगदलपुरी के लोक कथा संग्रह हैं – हल्बी लोक कथाएँ (1972); बस्तर की लोक कथाएँ (1989); वन कुमार और अन्य लोक कथाएँ (1990); बस्तर की मौखिक कथाएँ (1991)। उन्होंने अनुवाद पर भी कार्य किया है तथा प्रमुख प्रकाशित अनुवाद हैं – हल्बी पंचतंत्र (1971); प्रेमचन्द चो बारा कहानी (1984); बुआ चो चीठीमन (1988); रामकथा (1991) आदि। लाला जी नें बस्तर के इतिहास तथा संस्कृति को भी पुस्तकबद्ध किया है जिनमें प्रमुख हैं – बस्तर: इतिहास एवं संस्कृति (1994); बस्तर: लोक कला साहित्य प्रसंग (2003) तथा बस्तर की लोकोक्तियाँ (2008)। यह उल्लेखनीय है कि लाला जगदलपुरी का बहुत सा कार्य अभी अप्रकाशित है तथा दुर्भाग्य वश कई महत्वपूर्ण कार्य चोरी कर लिये गये। यह 1971 की बात है जब लोक-कथाओं की एक हस्तलिखित पाण्डुलिपि को अपने अध्ययन कक्ष में ही एक स्टूल पर रख कर लाला जी किसी कार्य से बाहर गये थे कि एक गाय नें यह सारा अद्भुत लेखन चर लिया था। जो खो गया अफसोस उससे अधिक यह है कि उनका जो उपलब्ध है वह भी हमारी लापरवाही से कहीं खो न जाये; आज भी लाला जगदलपुरी की अनेक पाण्डुलिपियाँ अ-प्रकाशित हैं किंतु हिन्दी जगत इतना ही सहिष्णु व अच्छे साहित्य का प्रकाशनिच्छुक होता तो वास्तविक प्रतिभायें और उनके कार्य ही मुख्यधारा कहलाते। 

लाला जगदलपुरी जी के कार्यों व प्रकाशनों की फेरहिस्त यहीं समाप्त नहीं होती अपितु उनकी रचनायें कई सामूहिक संकलनों में भी उपस्थित हैं जिसमें समवांय, पूरी रंगत के साथ, लहरें, इन्द्रावती, हिन्दी का बालगीत साहित्य, सुराज, छत्तीसगढी काव्य संकलन, गुलदस्ता, स्वरसंगम, मध्यप्रदेश की लोककथायें आदि प्रमुख हैं। लाला जी की रचनायें देश की अनेकों प्रमुख पत्रिकाओं/समाचार पत्रों में भी स्थान बनाती रही हैं जिनमें नवनीत, कादम्बरी, श्री वेंकटेश्वर समाचार, देशबन्धु, दण्डकारण्य, युगधर्म, स्वदेश, नई-दुनिया, राजस्थान पत्रिका, अमृत संदेश, बाल सखा, बालभारती, पान्चजन्य, रंग, ठिठोली, आदि सम्मिलित हैं। लाला जगदलपुरी नें क्षेत्रीय जनजातियों की बोलियों एवं उसके व्याकरण पर भी महत्वपूर्ण कार्य किया है। लाला जगदलपुरी को कई सम्मान भी मिले जिनमें मध्यप्रदेश लेखक संघ प्रदत्त “अक्षर आदित्य सम्मान” तथा छत्तीसगढ शासन प्रदत्त “पं. सुन्दरलाल शर्मा साहित्य सम्मान’ प्रमुख है। लाला जी को अनेको अन्य संस्थाओं नें भी सम्मानित किया है जिसमें बख्शी सृजन पीठ, भिलाई; बाल कल्याण संस्थान, कानपुर; पड़ाव प्रकाशन, भोपाल आदि सम्मिलित है। यहाँ 1987 की जगदलपुर सीरासार में घटित उस अविस्मरणीय घटना को उल्लेखित करना महत्वपूर्ण होगा हब शानी को को सम्मानित किया जा रहा था। शानी जी स्वयं हार ले कर लाला जी के पास आ पहुँचे और उनके गले में डाल दिया; यह एक शिष्य का गुरु को दिया गया वह सम्मान था जिसका कोई मूल्य नहीं; जिसकी कोई उपमा भी नहीं हो सकती। 

केवल इतनी ही व्याख्या से लाला जी का व्यक्तित्व विश्लेषित नहीं हो जाता। वे नाटककार एवं रंगकर्मी भी हैं। 1939 में जगदलपुरे में गठित बाल समाज नाम की नाट्य संस्था का नाम बदल कर 1940 में सत्यविजय थियेट्रिकल सोसाईटी रख दिया गया। इस ससंथा द्वारा मंचित लाला जी के प्रमुख नाटक थे – पागल तथा अपनी लाज। लाला जी नें इस संस्था द्वारा मंचित विभिन्न नाटकों में अभिनय भी किया है। 1949 में सीरासार चौक में सार्वजनिक गणेशोत्सव के तहत लाला जगदलपुरी द्वारा रचित तथा अभिनित नाटक “अपनी लाज” विशेष चर्चित रहा था। लाला जी बस्तर अंचल के प्रारंभिक पत्रकारों में भी रहे हैं। वर्ष 1948 – 1950 तल लाला जी नें दुर्ग से पं. केदारनाथ झा चन्द्र के हिन्दी साप्ताहित “ज़िन्दगी” के लिये बस्तर संवाददाता के रूप में भी कार्य किया है। उन्होंने हिन्दी पाक्षिक अंगारा का प्रकाशन 1950 में आरंभ किया जिसका अंतिम अंक 1972 में आया था। अंगारा में कभी ख्यातिनाम साहित्यकार गुलशेर अहमद खां शानी की कहानियाँ भी प्रकाशित हुई हैं; उल्लेखनीय है कि शानी भी लालाजी का एक गुरु की तरह सम्मान करते थे। लाला जगदलपुरी 1951 में अर्धसाप्ताहिक पत्र “राष्ट्रबंधु” के बस्तर संवाददाता भी रहे। समय समय पर वे इलाहाद से प्रकाशित “लीडर”; कलकत्ता से प्रकाशित “दैनिक विश्वमित्र” रायपुर से प्रकाशित “युगधर्म” के बस्तर संवादवाता रहे हैं। लालाजी 1984 में देवनागरी लिपि में निकलने वाली सम्पूर्ण हलबी पत्रिका “बस्तरिया” का सम्पादन प्रारंभ किया जो इस अंचल में अपनी तरह का अनूठा और पहली बार किया गया प्रयोग था। लाला जी न केवल स्थानीय रचनाकारों व आदिम समाज की लोक चेतना को इस पत्रिका में स्थान देते थे अपितु केदारनाथ अग्रवाल, अरुणकमल, गोरख पाण्डेय और निर्मल वर्मा जैसे साहित्यकारों की रचनाओं का हलबी में अनुवाद भी प्रकाशित किय जाता था। एसा अभिनव प्रयोग एक मिसाल है; तथा यह जनजातीय समाज और मुख्यधारा के बीच संवाद की एक कडी था जिसमें संवेदनाओं के आदान प्रदान की गुंजाईश भी थी और संघर्षरत रहने की प्रेरणा भी अंतर्निहित थी। 

लाला जगदलपुरी से जुडे हर व्यक्ति के अपने अपने संस्मरण है तथा सभी अविस्मरणीय व प्रेरणास्पद। लाला जगदलपुरी के लिये तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह नें शासकीय सहायता का प्रावधान किया था जिसे बाद में आजीवन दिये जाने की घोषणा भी की गयी थी। आश्चर्य है कि मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह शासन नें 1998 में यह सहायता बिना किसी पूर्व सूचना के तब बंद करवा दी; जिस दौरान उन्हें इसकी सर्वाधिक आवश्यकता थी। लाला जी नें न तो इस सहायता की याचना की थी न ही इसे बंद किये जाने के बाद किसी तरह का पत्र व्यवहार किया। यह घटना केवल इतना बताती है कि राजनीति अपने साहित्यकारों के प्रति किस तरह असहिष्णु हो सकती है। लाला जी की सादगी को याद करते हुए वरिष्ठ साहित्यकार हृषिकेष सुलभ एक घटना का बहुधा जिक्र करते हैं। उन दिनों मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह जगदलपुर आये थे तथा अपने तय कार्यक्रम को अचानक बदलते हुए उन्होंने लाला जगदलपुरी से मिलना निश्चित किया। मुख्यमंत्री की गाडियों का काफिला डोकरीघाट पारा के लिये मुड गया। लाला जी घर में टीन के डब्बे से लाई निकाल कर खा रहे थे और उन्होंने उसी सादगी से मुख्यमंत्री को भी लाई खिलाई। लाला जी इसी तरह की सादगी की प्रतिमूर्ति हैं। आज उम्र के चौरानबे वसंत वे देख चुके हैं। कार्य करने की धुन में वे अविवाहित ही रहे। जगदलपुर की पहचान डोकरीनिवास पारा का कवि निवास अब लाला जगदलपुरी के भाई व उनके बच्चों की तरक्की के साथ ही एक बडे पक्के मकान में बदल गया है तथापि लाला जी घर के साथ ही लगे एक कक्ष में अत्यधिक सादगी से रह रहे हैं। लाला जी अब ठीक से सुन नहीं पाते, नज़रें भी कमजोर हो गयी हैं। भावुकता अब भी उतनी ही है; हाल ही में जब मैं उनसे मिला था तो वे अपने जीवन के एकाकीपन से क्षुब्ध थे तथा उनकी आँखें बात करते हुए कई बार नम हो गयीं। लाला जगदलपुरी के कार्यों, उपलब्धियों व जीवन मूल्यों को देखते हुए उन्हें अब तक पद्म पुरस्कारों का न मिलना दुर्भाग्यपूर्ण है। लाला जगदलपुरी को पद्मश्री प्रदान करने माँग अब कई स्तरों पर उठने लगी है; यदि सरकार इस दिशा में प्रयास करती है तो यह बस्तर क्षेत्र को गंभीरता से संज्ञान में लेने जैसा कार्य कहा जायेगा चूंकि बस्तर और लाला जगदलपुरी पर्यायवाची शब्द हैं।

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प्रस्तुत चित्र लाला जगदलपुरी जी के कल और आज का है। एक चित्र जब लाला जगदलपुरी युवा थे तथा एक वर्तमान का चित्र केवल दो माह पुराना। लाला जगदपुरी जी को जन्मदिवस की हार्दिक शुभकामनायें। उनका आशीर्वाद हमेशा हमारे सर पर बना रहे। माँ दंतेश्वरी से यही मंगल कामना है। 

Friday, December 14, 2012

बस्तर की नल सत्ता (300-925 ई. तक) का सामाजिक आर्थिक पक्ष।

सांध्य दैनिक ट्रू-सोल्जर में दिनांक 14.12.12 को प्रकाशित
प्राचीन बस्तर के नल साम्राज्य की सामाजिक-आर्थिक दशा और दिशा का विवेचन आवश्यक है। यह युग जब मौर्य साम्राज्य का पतन हो गया था; गुप्त साम्राज्य नें महाकांतार को शासन स्वायत्ता दे दी और वे भी उत्तर भारत की राजनीति में ही केन्द्रीभूत रह गये। महाकांतार की राजनीति को वाकाटक सत्ता की एक मात्र चुनौती निरंतर मिलती रही थी इसके बाद भी नल साम्राज्य (300-925 ई. तक) नें शांतिप्रिय एवं स्थिर सत्ता प्रदान की। राजनीतिक स्थिरता के साथ ही साथ यह समय एक महान धार्मिक आन्दोलन के पटाक्षेप का भी रहा; अब बुद्ध और जैन धर्म के ज्ञान और दर्शन का आलोक सिमटने लगा था। वैदिक धर्म का पुनरुत्थान होने लगा। 

नल साम्राज्य के समय का महाकांतार केन्द्रीय सत्ता के अंतर्गत अनेकों अर्ध स्वतंत्र राज्यों में बटा हुआ था जिन्हें मण्डल कहा जाता था। उस काल के ज्ञात मण्डल हैं - चक्रकोट्ट मंडल (यह वेंगी तथा दक्षिण कोसल के मध्य अवस्थित था जिसपर इस क्षेत्र को बस्तर तथा कोरापुट क्षेत्र की सम्मिलित क्षेत्र में उपस्थित माना जा सकता है जिसकी राजधानी बारसूर थी); भ्रमरकोटय मण्डल (यह चक्रकोट्ट मण्डल का पूर्वी क्षेत्र रहा है। इसे आधुनिक उपरकोट कहा जा सकता है तथा राजधानी तरभ्रमरक थी। यहाँ नल आधीनता में तुष्टीकर राजवंश का शासन चल रहा था);  खिडिडरश्रृंग मण्डल (धारकोट, बडबढ, शेरगढ तथा सोरढ जमीन्दारियों का संयुक्त क्षेत्र); कमल मण्डल (कालाहाण्डी तथा राजिम का क्षेत्र);  वड्डाडि मण्डल (यह मदगोल क्षेत्र का वाचक है तथा नरसीपटम के पूर्व में अवस्थित है); शूय क्षेत्र (बस्तर से लगा कालाहाण्डी का क्षेत्र); नलवाडी (यह अनेक मण्डलों का समूह रहा होगा तथा नल सत्ता का केन्द्रीय क्षेत्र होना चाहिये); कमण्डलु पट्ट (यह एक जनपद का वाचक था जिसके अंतर्गत भीमनगर ग्राम भी आता था)। राज्य की इकाईयो के रूप में मण्डल, भोग, विषय, पुर, ग्राम आदि विभाजन प्रचलित थे। प्रत्येक मण्डल में अनेक छोटे प्रांत आते थे जिसके अधिकारी सामंत कहे जाते थे। छोटे प्रांतो के बाद की इकाई राष्ट्र थी जिसके अधिकारी राष्ट्रकूट कहे जाते थे। राष्ट्र भुक्तियों में बँटा हुआ था जिसके बाद की इकाई पुर (नगर) तथा ग्राम थे। नल शासन ’सम्राट केन्द्रित’ था तथा शासक स्वयं को ‘राजा’, ‘महाराज’ अथवा ‘महाराजाधिराज परमेशवर’ आदि विभूषित करते थे। राजा का ज्येष्ठ पुत्र ही राज्याधिकार प्राप्त करता था जिसे भट्टारक कहा जाता था। राजमहिषि को भट्टारिका सम्बोधन प्राप्त था। राजप्रासाद के कर्मचारियों के पद  - रहस्याधिकृत (गुप्तचर विभाग का प्रमुख), महाबलाधाकृत (सेनापति), संधिविग्रहिक (विदेश मंत्री), प्रतीहार, विनयासुर, प्रतिनर्तक, भट (सिपाही) आदि थे। शासन प्रबन्ध अमात्यों (मंत्रियों) द्वारा चलाया जाता था। नल साम्राज्य के अंतिम ज्ञात शासकों में भीमसेन (लगभग 900 – 925 ई.) प्रमुख हैं तथा उनके समय तक सामंत व्यवस्था का पूरी तरह आधुनिकीकरण हो गया था। अब सामंत शक्तिशाली थे एवं अपने क्षेत्र के आंतरिक मामलों में स्वतंत्र होते थे; यद्यपि सामंतो को राजाज्ञा का पालन करना आवश्यक था। सामंतो के कार्यों पर राजा की ओर से संधिविग्रहिक निगरानी रखते थे।

प्राचीन बस्तर में नल-राजशाही अनियंत्रित अथवा निरंकुश नहीं थी। शासक धर्मभीरु थे तथा जनता के सुख-दु:ख में सहभागी भी थे। ज्ञात लगभग सभी नल अभिलेखों में धर्म को सत्ता संचालन का आधार माना गया है जिसके अभाव में नरक की कामना की गयी है – “षष्टि वर्षसहस्त्राणि स्वर्गे नन्दति भूमिद:। आक्षेप्ता चानुमंता च तान्येव नरके वसेत”। अभिलेखों में यह उल्लेख मिलता है कि गाय, ब्राम्हण तथा प्रजा का कल्याण ही राजा का कल्याण है – “स्वस्ति गो ब्रम्हाणप्रजाभ्य: सिद्धिरस्तु”। राजा अत्यंत धर्मभीरु होते थे जिसकी परिणति में ब्राम्हणों को भूमिदान-लाभ प्राप्त होता रहा है। उल्लेख मिलता है कि भवदत्तवर्मन (400-440 ई.) नें अपनी पत्नी अचली भट्टारिका के साथ दाम्पत्य सम्बन्ध से अनुग्रहीत हो कर पाराशरगोत्रीय ब्राम्हण मात्राढयार्य तथा उसके आठ पुत्रों को कदम्बगिरि ग्राम दान में दिया था। अर्थपति (460-475 ई.) नें कौत्सगोत्रीय ब्राम्हण रविरार्य तथा रविदत्तार्य को केसेलक गाँव दान में दिया था। स्कंदवर्मा (475-500 ई.) नें अपने माता-पिता तथा पितामह के धर्मलाभार्थ, पुष्करी में भगवान विष्णु का पवित्र पादमूल निर्मित करवाया था। विलासतुंग (700-740 ई.) नें अपने स्वर्गीय पुत्र की पुण्याभिवृद्धि के लिये विष्णु मंदिर का निर्माण करवाया तथा काश्यपगोत्रीय ब्राम्हण भट्टपाजूनि को कूर्मतला नामक गाँव दान दिया था। भवदत्त वर्मा के ऋद्धिपुर ताम्रपत्र से यह ज्ञात होता है कि उस युग में न्याय का अलग विभाग रहा होगा जिसका कार्य सभी विवादों व झगडों को निबटाना रहा होगा – “सर्ववाद परिहीन:”; अंतिम न्यायाधीश राजा हुआ करता था।   

नल युगीन प्राचीन बस्तर की जीवन शैली में वेद-वर्णित चारो वर्णों (ब्राम्हण-क्षत्रिय-वैश्य-शूद्र) का उल्लेख मिलता है। इसके अतिरिक्त कुछ व्यवसाय भी जो उस समय प्रचलित थे जैसे शिल्पकार, स्वर्णकार, लौहकार आदि भी बाद में जाति सूचक हो गये। वैश्यों की संख्या समाज में सर्वाधिक थी तथा व्यावसायी, उद्योगपति, पशुपालक आदि होने के कारण यह धनी वर्ग था तथा राज्य को प्रमुखता से कर इसी वर्ग से प्राप्त होता था। प्राचीन बस्तर में जाति व्यवस्था का बहुत कठोरता से पालन होता होगा एसा प्रतीत नहीं होता। राजा भवदत्त वर्मा (क्षत्रिय) की पत्नि अचली (वैश्य) थी। भवदत्त वर्मा के ऋद्धिपुर ताम्रपत्र का टंकणकर्ता/खनक एक ब्राम्हण - पद्दोपाध्याय का पुत्र बोपदेव है – ‘पद्दोपाध्यायपुत्रस्य पुत्रेण बोप्पदेवेन क्षतिमिदं’। उस युग में उपाध्याय वेदपाठी ब्राम्हण होते थे तथा बोपदेव द्वारा खनक (खनक जाति शूद्र मानी गयी है) का कार्य करना समाज में एक प्रकार के खुलेपन की दिशा बताता है। निश्चित ही समाज में दास प्रथा भी विद्यमान रही होगी। एक प्राचीन नल अभिलेख में ‘जांतुरदास’ का उल्लेख किया गया है – “भक्त्या जांतुरदासेन”। किंतु इस विवरण के साथ यह भी ज्ञात होता है कि जांतुरदास एक कवि थे एवं राजा स्कन्दवर्मा के पोडागढ अभिलेख के वे रचयिता थे; यह कार्य ब्राम्हणों का माना जाता था।  तद्युगीन एक दास द्वारा अभिलेख लेखन एवं छंद रचना किया जाना यह दर्शाता है कि सामाजिक जटिलतायें - रूढीवादिता और ढकोसलावाद में इस समय तक तब्दील नहीं हुई थीं। जान्तुरदास नें पोड़ागढ अभिलेख में तेरह पद्यों की रचना आर्या तथा अनुष्टुप छंदो के अंतर्गत की है। जांतुरदास का यह छंद देखिये जिसमें अंत्यानुप्रास अलंकार अद्भुत रूप में प्रयुक्त हुआ है – “अप्रवेश्यं भटैश्चेदं सदां करविसर्जितं। श्रीचक्रद्रोणपुत्रायं यथोचितं”। समाज में आश्रम व्यवस्था का भी आंशिक रूप से ही पालन होने के प्रमाण मिलते हैं। स्कंदवर्मा के अभिलेखों में अग्रहार का उल्लेख है; अग्रहारों में ब्रम्हचारी शिक्षा ग्रहण किया करते थे। इस युग के प्राय: सभी ज्ञात ब्राम्हण गृहस्थ थे। वानप्रस्थ तथा सन्यास को एक ही आश्रम – ‘यति’ माना जाने लगा था। कालिदास नें भी अपनी कृति रघुवंश में तीन ही आश्रम का उल्लेख किया है। उल्लेख मिलता है कि राजा स्कंदवर्मन नें यतियों को दक्षिणा दी – “सत्वोपभोज्यं विप्राणां यतीनात्जच विशेषत:”। नल अभिलेखों में चार ऋणों से मुक्त होने की अवधारणा के प्रचलन का भी संकेत मिलता है। देवऋण से मुक्त होने के लिये यज्ञ, ऋषिऋण से मुक्त होने के लिये अध्ययन, पितृऋण से मुक्त होने के लिये संतानोत्पत्ति तथा मनुष्यऋण से मुक्त होने के लिये गो-ब्राम्हण पूजा समाज में व्याप्त थी। 

नलयुगीन बस्तर का समाज मूल रूप से संस्कृतभाषी था। भाषा में प्राकृत तथा स्थानीयता के प्रभाव के उदाहरण भी कहीं कहीं दृष्टिगोचर होते हैं। ताम्रपत्रों-शिलालेखों से उद्धरित कुछ नाम जैसे मालि, बोप्पदेव, सामंताक, आगिस्मामि, भट्टपाजिनि आदि प्राकृत के निकट हैं। यह संभावना बनती है कि आदिवासी तथा कृषक समाज संस्कृत समझता अवश्य रहा होगा किंतु जनसाधारण की बोलचाल की अपनी ही भाषा-बोली विद्यमान रही होगी। इस युग में नारी की स्थिति संतोषजनक मानी जा सकती है। उसे यज्ञादि में समान रूप से भाग लेने का अधिकार था साथ ही राजस्त्रियों द्वारा दान आदि किये जाने के उल्लेख ताम्रपत्रों व शिलालेखों से प्राप्त होते हैं। अभिजात्य वर्ग द्वारा पहने जाने वाले वस्त्र कलात्मक होते थे जिसकी पुष्टि उस युग की प्राप्त मूर्तियों से होती है। राजिम स्थित राजा विलासतुंग द्वारा निर्मित मूर्तियों में मुमुट, वैजयंतिमाला, केयुर, कुण्डल, भुजबन्ध, कंगण, हार, कर्णशोभन, तीन लडियों वाली मोतियों की माला आदि गहने प्रमुखता से देखे गये है। तद्युगीन देव-मूर्तियाँ कई प्रकार के केश विन्यासों एवं बालों में पुष्पसज्जा की ओर इशारा करती हैं जिससे सहज अंदाजा लगता है कि समाज में श्रंगार महत्वपूर्ण स्थान रखता था। भोजन के प्रकारों का विवरण नहीं मिल सका है किंतु क्षीर तथा सोम का पेय में प्रचलन था। बस्तर क्षेत्र में महुवे के पेड बहुतायत संख्या में है अत: स्वाभाविक था कि मधुकलतिया (महुवे की शराब) चलन में थी। अभिलेखों के अनुसार मनोरंजन के लिये शिकार करने तथा जलक्रीडा किये जाने का उल्लेख मिलता है। राजिम से प्राप्त मूर्तियों में मृदंग दृष्टव्य है तथा देवी देवताओं की नृत्य मुद्रा दृश्टिगोचर हो रही है; यह निर्विवाद है कि नृत्य संगीत आमोद-प्रमोद का महत्वपूर्ण हिस्सा रहे होंगे। 

वैदिक युग से ही दो तरह के सिक्के राजवंशो द्वारा चलन में लाये गये थे पहला ‘निष्क’ जो कि चित्रपूर्ण तथा अंक पूर्ण मुद्रा थी जब की दूसरी ‘हिरण्य’ कहलाती थी; यह  स्वर्ण पिण्ड मात्र होता था किंतु उसपर कोई चित्र या अंक नहीं उकेरा जाता था। नलवंशीय बस्तर में ये दोनो ही प्रकार चलन में थे। घना जंगल और अत्यधिक पिछडा क्षेत्र कहे जाने वाले आज के बस्तर में एक समय में स्वर्ण तथा रौप्य (चाँदी) मुद्राओं से अर्थव्यवस्था संचालित थी यह बात आश्चर्य से भर देती है। बात 1939 ई. की है जब स्थानीय प्रशासन को किसी व्यक्ति के पास राजनान्दगाँव के एडेंगा गाँव से प्राचीन सोने के सिक्के पाये जाने की भनक लगी; जब तक उन्हें प्राप्त किया जाता, एक सोनार नें कई सिक्के गला दिये थे। यह नल युगीन बस्तर की विरासत थी। यह सौभाग्य था कि बत्तीस सोने के सिक्के अच्छी हालत में प्राप्त कर लिये गये; इनमें उनत्तीस सिक्कों पर वाराहराज (400-440 ई.); एक सिक्के पर भवदत्तराज (400-440 ई.) तथा दो सिक्कों पर अर्थपतिराज (460-475 ई.) अंकित है। राज्य की अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार “कर-प्रणाली” थी। एडेंगा से प्राप्त राजों के नाम अंकित मुद्राओं के अतिरिक्त राजा भवदत्त के ऋद्धिपुर ताम्रपत्र के अनुसार सभी कृषकों को हिरण्य अथवा अन्य प्रकारों (रौप्य, अन्न आदि) से कर चुकाने के निर्देश दिये गये हैं – “विषयोचिता: हिरण्यादय: सर्व्वप्रत्याया: दातव्या:”। राज्य द्वारा दान में दी गयी भूमि पर भी निश्चित कर लिया जाता था। राज्य एसी समस्त भूमि का स्वामि था जिसका कोई उत्तराधिकारी न हो शेष निजी सम्पत्ति होते थे तथा उन पर भूमिकर देय था। निजी सम्पत्ति माने जाने के कारण भूमि का क्रय-विक्रय भी होता था। भूमि के मानक माप निवर्तन (लगभग ढाई एकड) , हल (लगभग 5 एकड) तथा वाटक (यह 5 कुल्यवाप के बराबर होता था; एक कुल्यवाप निर्धारित आकार की टोकरी भरे बीज बोये जाने जितनी क्षमता भर भूमि होती थी) थे। तौल भी पूर्णत: विकसित प्रक्रिया थी। सोना चाँदी तौलने के लिये कर्ष (80 रत्ती) या पल (320 रत्ती) प्रयोग में आते थे। भारी वस्तुओं के लिये माप थे कुडव (चार पल के बारबर); प्रस्थ (चार कुडव के बराबर); आढक (चार प्रस्थ के बाराबर); द्रोण (चार आढक के बराबर) आदि।  

नल समृद्ध और शक्तिशाली थे। उनके समकालीन भारत के मध्य क्षेत्र में वाकाटक शक्तिशाली सत्ता थी जिनकी दृष्टि प्राचीन बस्तर क्षेत्र पर कई कारणों से हमेशा लगी रही। पहला कि कलिंग और वाकाटकों के बीच में बडी दीवार थे नल और दूसरा व्यापार की दृष्टि से उत्तर से दक्षिण की ओर जाने का मार्ग नल राज्य की सीमा से हो कर गुजरता था। इस परिस्थिति में भी प्राचीन बस्तर में नल सत्ता वह गौरवशाली अतीत है जिसे वाकाटकों द्वारा रौंदा नहीं जा सका। कुछ प्रश्न अवश्य उठते हैं कि आदिवासी समाज और सत्ता के बीच कैसे सम्बन्ध रहे होंगे? क्या नल साम्राज्य के विषय में हम अब तक जितना जानते हैं वह आदिवासियों की अवस्थिति तथा उनकी दशा दिशा का प्रस्तुतिकरण नहीं है? एसा नहीं मानने के कई कारण उपलब्ध हैं पहला कि वह आदिवासी समाज जो मौर्य सेना में अपनी हिस्सेदारी निभाता रहा हो नल सत्ता की निश्चित ही ढाल बनता रहा होगा। दूसरा कि मुख्यधारा की राजनीति से बस्तर के आदिवासी 1966 के बाद पृथक हुए हैं अन्यथा इस अंचल की प्रजा जागरूक भी रही है तथा साहसी भी। आदिवासी जनता ही राजा की पदाति सेना, कृषक तथा आखेट की सहयोगी रही होगी। उल्लेख मिलते हैं कि नल शासकों की कृषि से आय सीमित थी। इसका कारण आदिवासी समाज में दाही/स्थानांतरिक तथा सामूहिक खेती का प्रचलन तथा कृषि के सदियों पुराने तरीकों का विद्यमान होना था। बस्तर एक लचीला समाज भी रहा है इसलिये जीवित तथा जिन्दादिल है और लम्बे समय से अपनी पहचान बनाये रख सका है। नल साम्राज्य का बार बार व विभिन्न कोणों से विश्लेषण आवश्यक है चूंकि आज की स्थिति तक पहुँचने की पडताल हमें प्राचीन बस्तर के अतीत में उतर कर इसी विन्दु से करनी होगी। एसा क्यों हुआ कि जिस क्षेत्र की अर्थव्यवस्था स्वर्ण मुद्रायें संचालित करती हों वह कौडियों का हो कर रह गया? एसा क्यों हुआ कि जहाँ जान्तुरदास जैसे कवि और विद्वान रहे थे वह अशिक्षा और अंधकार के दलदल की ओर जाता गया? एसा क्यों हुआ कि जहाँ बुद्ध का भी प्रभाव रहा और महावीर का भी; जहाँ ह्वेनसांग भी आये और नागार्जुन भी वह क्षेत्र पहचान खोने की स्थिति तक पहुँच गया? इतिहास के अगले पन्ने सम्भवत: इन प्रश्नों का उत्तर रखते हों। उपसंहार में यह कहा जा सकता है कि नल शासन काल बस्तर के सर्वश्रेष्ठ समयों मे रहा है। बस्तर के इतिहास में नल शासक हमेशा वह बुनियाद माने जायेंगे जहाँ से संगठित सत्ता तथा व्यवस्थित प्रशासन का प्रारंभ होता है।

Friday, December 07, 2012

क्या बस्तर के ‘नल वंशीय शासक’ मूलत: आदिवासी थे?

सांध्य दैनिक ट्रू-सोल्जर में दिनांक 6.12.12 को प्रकाशित 

महाभारत के ‘नलोपाख्यान’ में नल-दमयंती की अतयंत रोचक प्रेम-कहानी वर्णित है। यही कथा महाकांतार क्षेत्र से नलों का सम्बन्ध जोडने की एकमात्र कडी प्रतीत होती है। विदर्भ देश के राजा भीम की पुत्री दमयंती और निषध के राजा वीरसेन के पुत्र नल दोनों ही अति सुंदर थे तथा एक दूसरे की प्रशंसा सुनकर बिना देखे ही परस्पर प्रेम करने लगे। विवाहेच्छुक इन्द्र, वरुण, अग्नि तथा यम दमयंती के स्वंवर में पहुचे तथा प्रेमकहानी ज्ञात होने के कारण वे सभी नल का रूप धारण कर ही आये थे। प्रेम को सही प्रेमी की पहचान स्वत: हो जाती है तथा इसके बाद नल-दमयंती का मिलन हो जाता है। इसी बीच नल अपने भाई पुष्कर से जुए में अपना सब कुछ हार जाता है। दोनों प्रेमी-दम्पति बिछुड़ जाते है; दमयंती चेदि देश के राजा सुबाहु की पत्नि की सैरन्ध्री बन कर कुछ समय व्यतीत करती है, किंतु फिर अनेक कष्टों से गुजर कर अपने पैत्रिक परिवार में पहुंच जाती है। इस बीच नल का संघर्ष जारी है तथा उसे कर्कोटक नामक के सांप नें डस लिया था जिससे कि उसका रंग काला पड़ गया था। दोनो प्रेमी विरहातुर हैं, मिलना चाहते हैं; लेकिन एक दूसरे को बेहतर जीवन देने की चाहत है इस लिये नल यह जान कर भी दमयंति से नहीं मिलते कि वह कहाँ है। दमयंति के पिता इस प्रेम के मर्म को जानते हैं अत: नल को ढूंढने की युक्ति लगाई जाती है; वे दमयंती के स्वयंवर की घोषणा करते हैं। कश्मकश तथा संघर्ष का अंत होता है जब नल-दमयंती का पुन: मिलन होता है। कथा सुखांत है तथा इसके अंत में अपने सौतेले भाई पुष्कर से पुनः जुआ खेलकर नल अपना खोया हुआ राज्य-सम्पदा पुन: प्राप्त कर लेते हैं। विस्तार से पढने योग्य यह कथा अत्यधिक रोचक है जिसमें स्थान स्थान पर प्रेम के लिये किये जाने वाले संघर्ष तथा बलिदान तथा विश्वास की पराकाष्ठा प्रतीत होती है। 

कहा जाता है कि इसी नल राजा के वंशजों नें नल साम्राज्य की नींव रखी थी। शतपथ ब्राम्हण में ‘नल नैषध’ का उल्लेख है। यह एक एसा राजा प्रतीत होता है जिसकी तुलना मृत्यु के देवता यम से की गयी है। पाणिनी नें अष्टाध्यायी में निषध राज्य का उल्लेख किया है जिसे विदर्भ से लगा हुआ बताया गया है। इसके अलावा संस्कृत का प्रसिद्ध महाकाव्य श्रीहर्षकृत ‘नैषधीयचरित’ तथा त्रिविक्रम भट्ट की कृति ‘नलचम्पू’ आदि के साथ साथ नल राजाओं का विवरण वाण की ‘कादम्बरी’ एवं सोमदेव के ‘कथासरित्सागर’ में भी प्राप्त होता है। रामायण में उल्लेख है – नैषणं दमयंतीव भैमी पतिमनुव्रता। तथाहमिक्ष्वाकुवरं रामं पतिमनुव्रता (सुन्दरकाण्ड सर्ग 24; 9.13)॥ इस श्लोक में उल्लेख है कि सीता अपने पतिव्रत की तुलना दमयंती से करती हैं। इन पौराणिक आख्यानों व उद्धरणों का सम्बन्ध भारत के किस क्षेत्र से रहा है यह जानना आवश्यक हो जाता है। पाणिनी के विदर्भ से लगा क्षेत्र नल-राज्य की सीमा अथवा दिशा प्रदान नहीं करता। विष्णु पुराण के अनुसार विन्ध्य तथा पयोष्णि के पास निषध का होना माना जाता है लेकिन यह जानकारी भी उचित उत्तर प्रदान नहीं करती। महाभारत में निषध की राजधानी ‘गिरिप्रस्थ’ बतायी गयी है इस आधार पर उपरोक्त सभी सम्मितियों को जोड कर इतिहासकार डॉ हीरालाल शुक्ल नैषध को ‘महाकांतार’ अथवा ‘महावन’ के साथ जोड कर देखते हैं जो कि प्राचीन बस्तर का क्षेत्र है। इस क्षेत्र में अनेक नाम नल से जुडे हुए हैं जैसे - नलमपल्ली, नलगोंडा, नलवाड़, नलपावण्ड, नड़पल्ली, नीलवाया, नेलाकांकेर, नेलचेर, नेलसागर आदि। शास्त्रों में उल्लेख है कि कर्कोटक नाम के सर्प नें नल को डसा था; बस्तर में ककोटिक और इससे मिलते कई गाँव हैं। इतना ही नहीं बस्तर की प्राण सरिता इन्द्रावती का नाम-साम्य नल-दम्यंति के पुत्र-पुत्री इन्द्रसेना व इन्द्रसेन से मिलता है। 

बस्तर में नलवंश के राजाओं का ज्ञान हमें साहित्यिक, अभिलेखीय तथा मौद्रिक साधनों से ज्ञात होता है। नलों के अभिलेख तीन ताम्रपत्रों, दो शिलालेखों, समुद्र गुप्त का प्रयाग स्तम्भ लेख, प्रभावती गुप्त का दानपत्र, चालुक्य राजा पुलेकिशन द्वितिय का ऐहोल अभिलेख, पल्लव मल्ल नन्दिवर्धन का उदयेन्दिरम ताम्रपत्र तथा नल राजाओं के सिक्के; इस काल का इतिहास जानने के प्रमुख साधन हैं। नलवंश की कमजोरियों का यदा-कदा लाभ सीमावर्ती शासकों ने भी उठाया तथा वेंगी के राजा का भी बस्तर पर आक्रमण हुआ था। उसका कवि बिल्हण अपने काव्यग्रंथ “बिक्रमांक देव चरितम” में बस्तर का उल्लेख कई बार करता है। इन सब के दृष्टिगत भी नल वंश के शासक और उनके बस्तर आगमन व शासन का समय विवादित रहा है (प्राचीन छत्तीसगढ, प्यारेलाल गुप्त, पृ-227)। दण्डकारण्य अंचल तथा छत्तीसगढ के दुर्ग में नलवंशीय शासकों के सिक्के व शिलालेख मिले हैं। अत: इतना निष्कर्ष तो सहज निकाला जा सकता है कि नलों को प्रसिद्धि इसी अंचल से प्राप्त हुई (मध्यप्रदेश के पुरातत्व का संदर्भ ग्रंथ, पृष्ठ 389)। पाँचवी से ले कर आठवी शताब्दी तक नलवंशीय शासक बस्तर तथा दक्षिण कोसल के भूभाग पर राज करते रहे (मध्यप्रदेश के पुरातत्व का संदर्भ ग्रंथ, पृष्ठ 47)। इन संदर्भों के साथ यह प्रश्न उठना भी स्वाभाविक है कि क्या बस्तर के वे नल शासक जिन्होंने लगभग 300-925 ई. तक इन अरण्य क्षेत्रों में शासन किया वे ही ‘नलों’ के वास्तविक उत्तराधिकारी थे? स्वयं नल शासक तो यही मानते थे एवं अपने प्रत्येक अभिलेख मे स्वयं को नलान्वय लिखवाते रहे हैं; प्राप्त शिलालेखों, स्वर्णमुद्राओं तथा ताम्रपत्रों से कुछ एसे ही तथ्य प्रकाश में आये हैं (कलचुरी नरेश और उनका काल पृ 3)। वायुपुराण तथा ब्रम्हाण्ड पुराण से ज्ञात होता है कि नल के वंशज कोसल पर शासन करते थे। ईसा की चैथी शताब्दि से ले कर ग्यारहवी शताब्दी तके के जो आलेख प्राप्त हुए हैं उनमें ‘नलवंश प्रस्तुत’, ’नलवंश कुलांवय’ आदि उल्लेखों के आधार पर इन शासकों को नलवंशी मानने में कोई संदेह नहीं है (बस्तर का राजनैतिक व सांस्कृतिक इतिहास, पृ 15)। 

तथापि बडा प्रश्न यह है कि राजा नल स्वयं तो इक्ष्वाकुवंशीय थे तो यह नल राजवंश पृथक अस्तित्व में कैसे आया एवं इन्हें भी इक्ष्वाकु क्यों नहीं कहा गया? एक समस्या यह भी सामने आती है कि अतीत में अनेक छोटे-बडे राजवंशों नें अपने कुल को महिमामण्डित करने के लिये कभी अपना सम्बन्ध पाण्डवों से जोडा है तो कभी प्राचीन शास्त्रों के किसी चर्चित चरित्र से। क्या एसा ही कोई प्रयास तो बस्तर शासित नलों नें नहीं किया तथा अपनी आरंभिक अवस्था में वे आंचलिक व आदिवासी ही रहे हों? यह संभावना डॉ. हीरालाल शुक्ल भी व्यक्त करते हैं कि नल प्रकृतिपूजक वनवासी रहे होंगे? डॉ. शुक्ल का कथन है कि नल तृणविशेष (शादूलं हरितं प्रोक्तं नड्वलं नलसंयुक्तम – हलायुध कोष में वर्णित) अथवा वृक्षविशेष (नल: पोटगल: शून्यमध्यश्च छमनस्थता। नलस्तु मधुरस्तिक्त: कषाय: कफरक्तजित् – भावप्रकाश में वर्णित) का नाम है एवं बस्तर के नल कहे जाने वाले राजाओं में यह व्याघ्रराज एवं वाराहराज तक प्रतीक चिन्ह रहा होगा एवं इसके बाद के राजाओं तक आते आते पौराणिक यशगाथा से प्रभावित राजा नल ही प्रतीक व वंशक्रम के आदिपुरुष मान लिये गये होंगे। यह संभावना लगती है कि बस्तर के नल आरंभ में वाकाटक राजाओं के आधीन माण्डलिक राजा रहे होंगे किंतु शक्ति संचय के पश्चात वे एक विस्तृत राज्य के अधिकारी बने। प्रतीत होता है कि इसी समय वे अपना आदिवासी आवरण हटा कर आर्य संस्कृति की उस रौ में बह निकले होंगे जिसका कि गुप्त काल और इसके पश्चात तेजी से बढता प्रभाव बस्तर अंचल पर भी पडा था। इतिहास के इतने पुराने कालखण्ड की चर्चा करते हुए एसी कई संभावनाओं को टटोलना आवश्यक हो जाता है। 

महाकांतार (प्राचीन बस्तर) क्षेत्र पर नलवंश के राजा व्याघ्रराज (350-400 ई.) की सत्ता का उल्लेख समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशास्ति से मिलता है। व्याघ्रराज का समय दण्ड़क क्षेत्र पर गुप्त राजवंश के साम्राज्यवादी सम्राट समुद्रगुप्त के आक्रमण के लिये जाना जाता है। यह आश्चर्य का विषय है कि समुद्रगुप्त ने महाकांतार को साम्राज्य का हिस्सा बनाये जाने के स्थान पर नल-राजा व्याघ्रराज को अपनी छत्र-छाया में शासन करने की स्वतंत्रता दी। व्याघ्रराज के बाद वाराहराज (400-440 ई.) महाकांतार क्षेत्र के राजा हुए। वाराहराज ने अपने वन-राज्य में स्वर्णमुद्रायें प्रचलित की जिनमें ‘श्रीवाराहराजस्य’ लिखा गया तथा नंदी अंकित था। एसे 29 सोने के सिक्के एडेंगा से प्राप्त हुए हैं। वाराहराज का शासनकाल वाकाटकों से जूझता हुआ ही गुजरा। राजा नरेन्द्र सेन ने उन्हें अपनी तलवार को म्यान में रखने के कम ही मौके दिये। वाकाटकों ने इसी दौरान नलों पर एक बड़ी विजय हासिल करते हुए महाकांतार का कुछ क्षेत्र अपने अधिकार में ले लिया था। भवदत्त वर्मन (400-440 ई.) ने अपने पिता वाराहराज से मिली सत्ता को प्रसार और सम्पन्नता दी। राज्य की अर्थव्यवस्था ‘श्रीभवदत्तराजस्य’ अंकित स्वर्णमुद्राओं से संचालित होती थी। उनके द्वारा वर्ष 445 ई. के लगभग वाकाटक नरेश नरेन्द्रसेन पराजित हुए, उनकी राजधानी नंदीवर्धन पर भी अधिकार कर लिया गया था। अब महाकांतार से कोशल तक तथा कोरापुट से बरार तक के क्षेत्र पर नंद-त्रिपताका लहराने लगी। भवदत्त वर्मन के देहावसान के बाद अर्थपति भट्टारक (460-475 ई.) राजसिंहासन पर बैठे। अर्थपति एक दानी शासक थे। उनके केसरिबेडा ताम्रपत्र से ज्ञात होता है कि उन्होंने कौत्स गोत्रीय ब्राम्हण दुर्गार्य, रविरार्य तथा रविदत्तार्य को केसेलक गाँव दान में दिया था। अडेंगा में ‘श्री अर्थपति राजस्य’ अंकित दो स्वर्ण मुद्रायें भी प्राप्त हुई हैं। इस समय तक नलों की स्थिति क्षीण होने लगी थी जिसका लाभ उठाते हुए वाकाटक नरेश नरेन्द्रसेन नें पुन: महाकांतार क्षेत्र के बडे हिस्सों पर पाँव जमा लिये। नरेन्द्र सेन के पश्चात उसके पुत्र पृथ्वीषेण द्वितीय (460-480 ई.) नें भी नलों के साथ संघर्ष जारी रखा। अर्थपति भटटारक को नन्दिवर्धन छोडना पडा तथा वह नलों की पुरानी राजधानी पुष्करी लौट आया। पुष्करी के भी अर्थपति के शासनकाल में ही वाकाटकों द्वारा तहस नहस किये जाने के उल्लेख प्राप्त होते हैं। अर्थपति की मृत्यु के पश्चात नलों को कडे संघर्ष से गुजरना पडा जिसकी कमान संभाली उनके भाई स्कंदवर्मन (475-500 ई.) नें जिसे विरासत में एक लुटी हुई सियासत प्राप्त हुई थी। उन्होंने शक्ति संचय किया तथा तत्कालीन वाकाटक शासक पृथ्वीषेण द्वितीय को परास्त कर नल शासन में पुन: प्राण प्रतिष्ठा की। पोड़ागढ का प्रस्तराभिलेख भी स्पष्ट करता है कि स्कंदवर्मन ने नष्ट पुष्करी नगर को पुन: बसारा – “नृपतेर्भवदत्तस्य सत्पुत्रेगान्यान्य संथिताम भ्रष्टामाकृष्य राजर्द्धि शून्यमावास्य पुष्करीयम”। अल्पकाल में ही जो शक्ति व सामर्थ स्कन्दवर्मन नें एकत्रित कर लिया था उसने वाकाटकों के अस्तित्व को ही लगभग मिटा कर रख दिया। उसके समकालीन वाकाटक नरेश देवसेन की विलासिता नें भी स्कन्दवर्मन के साम्राज्य विस्तार में महति भूमिका अदा की थी। यद्यपि स्कंदवर्मा की मृत्यु के पश्चात महाकांतार में नल शासन की अवस्थिति तथा दशा दिशा पर बहुत जानकारियाँ उपलब्ध नहीं हैं। उनके पश्चात के शासकों के नाम व शासनावधि की समुचित जानकारी निकाल पाने में अभी इतिहासकार सफल नहीं हुए हैं। यह प्रतीत होता है कि वाकाटकों नें पुन: नलों को परास्त किया हो। संभावना है कि वाकाटक नरेश हरिषेण नें स्कंदवर्मन के पश्चात के शासको को परास्त कर राज्य विस्तार किया होगा। इसी समय में पूर्वी गंग नाम के एक राजवंश के शक्तिशाली हो कर उदित होने की जानकारी भी प्राप्त होती है। यह विश्वास किया जा सकता है कि वाकाटक नरेश हरिषेण की आधीनता में ही पूर्वी गंग त्रिकलिंग के शासक बने तथा वे वाकाटकों व आन्ध्र के शासकों के बीच प्रतिरोधक का कार्य करते रहे। एक चालुक्य नरेश कीर्तिवर्मन (567-597 ई)  के इस मध्य नलों पर आक्रमण किये जाने के कुछ प्रमाण मिलते हैं जो बताते हैं कि सिमट जाने के बाद भी बस्तर और कोरापुट के कुछ क्षेत्रों पर नलों की पकड बनी ही रही थी। चालुक्य राजा विक्रमादित्य प्रथम (655-788 ई.) के अभिलेख से भी नल शासित क्षेत्रों पर उनके प्रभाव की जानकारी मिलती है। इस उतारचढाव वाले दौर से भी एक तथ्य स्पष्टता से बाहर आता है कि भले ही चालुक्यों का महाकांतार क्षेत्र पर 788 ई. तक बहुत या कम प्रभाव प्रतीत होता है किंतु चालुक्य राजा पुलकेशिन द्वितीय की मृत्यु के पश्चात नल पुन: शक्तिशाली हो उठे और पृथ्वी राज (634-675 ई.) नें महाकांतार में अपने शत्रुओं चालुक्यों तथा पल्ल्वों को परास्त कर नल साम्राज्य को पुन: संगठित किया। अब राजधानी को श्रीपुर (आधुनिक सिरपुर) ले जाया गया। इसके पश्चात विरूपराज (675-700 ई.) का समय अपेक्षाकृत शांतिपूर्ण प्रतीत होता है। विरूपराज नें राजाधिराज की उपाधि ग्रहण की थी। उनके पश्चात विलासतुंग (700-740 ई.) नें राज्यभार ग्रहण किया। उनके द्वारा उत्कीर्ण राजिम अभिलेख से यह ज्ञात होता है कि उन्होंने अपने स्वर्गीय पुत्र की स्मृति तथा उसके पुण्यलाभ के लिये एक विष्णु मंदिर का निर्माण करवाया था। विलासतुंग नें अपने समय में महनदी तथा तेल नदी के तटवर्ती क्षेत्रों पर अधिकार कर राज्य विस्तार किया। उनके पुत्र पृथ्वीव्याघ्र (740-765 ई.) नें राज्य विस्तार करते हुए नेल्लोर क्षेत्र के तटीय क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया था। यह उल्लेख मिलता है कि उन्होंनें अपने समय में अश्वमेध यज्ञ भी किया। पृथ्वीव्याघ्र के पश्चात के शासक कौन थे इस पर अभी इतिहास का मौन नहीं टूट सका है। इसके लगभग डेढ सौ साल के पश्चात पुन: एक नलवंशी शासक भीमसेन (लगभग 900 – 925 ई.) का पता चलता है जिसने गंजाम-कोरापुट क्षेत्र में एक ताम्रपत्र प्रचरित किया था। इस उल्लेख से डेढ सौ साल की खामोशी को पढने की यही संभावना हाँथ लगती है कि सोमवंशियों ने नलों को इस अवधि में गंजाम की ओर धकेल दिया होगा। तथापि भीमसेन द्वारा धारण की गयी उपाधियाँ जैसे परममाहेश्वर, महाराजाधिराज आदि इस दौर का उसे शक्तिशाली शासक निरूपित करती हैं। नलवंश का इतिहास भीमसेन के पश्चात अप्राप्त है; यह संभावना है कि धीरे धीरे नल वंश का महाकांतार में पतन होने लगा। 

नल शासन व्यवस्था के आधीन कई माण्डलिक राजा थे। अतिशयोक्ति नहीं है कि दीर्घकाल तक नल-राजवंश ने महाकांतार क्षेत्र को स्थिर शासन प्रदान किया। मंदाकिनि तथा गोदावरी नदियों ने यात्रिपथ को दक्षिण के वेंगी राज्य से सम्बद्ध कर दिया था, जिससे कि वाणिज्य का विकास हुआ। यह संस्क़ृत-भाषी दण्ड़क वनवासियों का युग था; नल युग में शिक्षा और साहित्य समृद्ध हुआ। प्रशासनिक व्यवस्था में ग्रामीण भागीदारी को समुचित महत्व दिया गया था। किंतु शनै:-शनै: राजा लड़-झगड़ कर मोहताज हो गये। राज्य में सोने की मुद्राओं का स्थान रौप्य अथवा चाँदी की मुद्राओं ने ले लिया। पहले शांति का, फिर समृद्धि का और अंतत: लगभग बारहवी शताब्दि तक नल वंश का महाकांतार से पूरी तरह ह्रास हो गया।  

Friday, November 23, 2012

समुद्रगुप्त की महाकांतार (प्राचीन बस्तर) पर विजय


दक्षिण भारत को प्रमुखता के साथ इतिहास की पुस्तकों में जगह नहीं मिली है। वस्तुत: जब उत्तर भारत में साम्राज्यों के उत्थान पतन के दौर रहे तब भी सम्पूर्ण दक्षिणापथ के पास अपना गौरवशाली इतिहास व राजनीति रही है। प्राचीन बस्तर जिसे मौर्य काल में स्वतंत्र आटविक जनपद क्षेत्र कहा गया इसे समकालीन कतिपय ग्रंथों में महावन भी उल्लेखित किया गया है। साम्राज्यवादी शासक समुद्रगुप्त को दक्षिण विजय के लिये प्रमुखता से जाना है तथा वे गुप्त वंश के सर्वाधिक ख्यातिनाम विजेता रहे। उनके साम्राज्य विस्तार के लिये दक्षिण क्षेत्र की ओर बढने के कारणों को समझने के लिये मौर्य सत्ता की बिखरती हुई कडियों से बात आरंभ करनी होगी। अशोक वह आखिरी मौर्य सम्राट थे जिन्होंने विशाल भारतीय क्षेत्र में सामाजिक आर्थिक तथा राजनीतिक एकता का सूत्रपात किया था। तथापि उनकी दान शीलता एवं युद्ध को वर्जित कर देने की नीति के सकारात्मक परिणाम तो हुए किंतु इसके कारण सत्ता कमजोर भी होती गयी। अशोक के बाद उसके उत्तराधिकारी इतने महत्वहीन शासक रहे कि इतिहासकारों को इस काल के शासकों के नाम व उनका कालक्रम निर्धारण करने में माथापच्ची करनी पडती है।

पुराणों के अनुसार पुष्यमित्र नें मौर्य शासक बृहदर्थ को मार कर शुंगवंश (185 ई.पू से 73 ई.पू तक) की स्थापना की थी। कहा जाता है कि जब बृहदर्थ अपनी सेना का निरीक्षण कर रहे थे उसी समय उनके ही सेनापति पुष्यमित्र नें उनकी हत्या कर दी। पुष्यमित्र शुंग नें जिस क्रांति का नेतृत्व किया, उसे ब्राम्हण पुनर्स्थापन काल के रूप में भी जाना जाता है। धार्मिक असहिष्णुता का यह युग नहीं कहा जा सकता चूंकि इसी काल में विदिशा के निकट विभिन्न बौद्ध स्तूपों का निर्माण शासन द्वारा होने दिया था। पुष्यमित्र नें यवनों को परास्त किया तथा अपनी विजय के फलस्वरूप अश्वमेध यज्ञ भी किया था। महत्वपूर्ण है कि शुंग के समय में बौद्ध भिक्षु-भिक्षुणियों को मिलने वाले राज्याश्रय तथा अनुदानों को बंद करवा दिया गया था। संस्कृत को पुन: प्रोत्साहन मिला तथा इसी समय में पतंजलि नें महाभाष्य एवं मनु नें मनुस्मृति की रचना की। महाभारत के नये रूप की रचना भी इसी काल में हुई थी। उल्लेखनीय है आटविक जनपद अथवा दण्डकारण्य पर इनके द्वारा अधिकार करने की कोई चेष्टा कभी नहीं की गयी। यह पुष्यमित्र का ही समय तथा जब मौर्य शासन के पतन से उत्पन्न अस्थिरताओं का लाभ उठा कर कलिंग राज महामेघवाहन नें अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। उनकी ही पीढी के तीसरे शासक कलिंगराज खारवेल द्वारा उडीसा के उदयगिरि में हाथीगुंफा अभिलेख प्राकृत भाषा में उत्कीर्ण करवाया गया है जिसके अनुसार उनके वंशज 'ऐल वंश' के चेति या चेदि क्षत्रिय थे। राजा ख़ारवेल ने भारत के सुदूर प्रदेशों को जीतकर अपने अधीन भी कर लिया था जिसमें प्राचीन बस्तर का क्षेत्र भी आता है। उन्होंने मगध सत्ता को भी विजित किया तथापि ऐसा प्रतीत होता है कि ख़ारवेल अपने जीते हुए लम्बे समय तक अधिकार नहीं रख पाये तथा एक स्थायी साम्राज्य स्थापित करने में विफल रहे। खारवेल की प्रसंशा एसे शासक के रूप में करनी होगी जिसने कर-मुक्त व्यवस्था अपने शासित क्षेत्रों में लागू कर दी थी। मगध की राजनीति नें अगली करवट ली जब शुंग वंश अंतिम शासक देवभूति का वध कर के उसके प्रधानमंत्री वासुदेव कण्व में मगध की सत्ता संभाली व कण्व राज्य (72 ई.पू से 27 ई.पू तक) की स्थापना की। कण्व राजा सुशर्मा का वध कर के दक्षिण भारत से मगध की ओर बढे आन्ध्र सातवाहन साम्राज्य (27 ई.पू से 225 ई. तक) नें मगध की सत्ता पर अपना नियंत्रण हासिल किया। 22 ई. पूर्व में राजा सातकर्णी प्रथम की मृत्यु के बाद सातवाहन निर्बल होते चले गये। सातवाहनों का पुनरुत्थान 106 ई. के बाद, तब हुआ जब, गौतमपुत्र सातकर्णी सिंहासन पर बैठे। 'शक-यवन-पल्हवों' को पराजित कर राजा सातकर्णी ने अपना विशाल साम्राज्य स्थापित किया। अवन्ति, सौराष्ट्र आदि पर विजय प्राप्त करते हुए राजा गौतमीपुत्र सातकर्णि ने कौशल, कलिंग तथा दण्ड़कारण्य के दुर्बल शासक ‘चेदि महामेघवाहन’ को पराजित किया।

180 ई. के आरम्भ से, मध्य एशिया से कई आक्रमण हुए, जिनके परिणामस्वरूप उत्तरी भारतीय उपमहाद्वीप में यूनानी, शक, पार्थी और अंततः कुषाण राजवंश भी स्थापित हुए। उत्तर भारत के बडे क्षेत्र में चीन से सम्बद्ध युइशि जाति के राजवंश ‘कुषाण’ (60-240 ई.) की सत्ता स्थापित हो गयी थी। कुषाण राजवंश के अत्यधिक प्रभावशाली शासक कनिष्क हुए हैं; प्राचीन बस्तर से सम्बद्ध बौद्ध धर्म की महायान शाखा के महान दार्शनिक नागार्जुन इस युग के समकालीन महानतम विचारकों में थे तथा प्राचीन बस्तर में इन दिनों सातवाहनों का अधिकार था। कनिष्क पर बौद्ध धर्म की महायान शाखा का गहरा प्रभाव था। कनिष्क नें अपने समय में बौद्ध धर्म की चौथी संगीति का आयोजन कश्मीर के 'कुण्डल वन' में किया था। इसी संगीति में बौद्ध धर्म दो भागों - हीनयान और महायान में विभाजित हो गया। इस संगीति में दार्शनिक नागार्जुन भी शामिल हुए थे।

मौर्य सत्ता के पश्चात का बस्तर पूरी तरह स्वाधीन नहीं कहा जा सकता। महामेघवाहन वंश के राजा खारवेल नें जब इस क्षेत्र को जीता तो यहाँ जैन धर्म का बढ चढ कर प्रचार-प्रसार हुआ; यद्यपि यह अल्पावधि के लिये ही था। सातवाहनों की बस्तर पर सत्ता के समयों में बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार को देखा गया। महावन क्षेत्रों में जनजातियों की धार्मिक स्वतंत्रता पर हमला किये जाने अथवा बलात उन्हें शासित राजाओं के धर्म का अनुयाई बनाने के उल्लेख प्राप्त नहीं होते। अपितु सातवाहनों के पश्चात जैन व बौद्ध दोनो ही धर्मों के अस्तित्व के चिन्ह प्राचीन बस्तर से विलुप्त होने लगे थे। उत्तर और दक्षिण की इस खींचतान भरी राजनीति का निश्चित ही बस्तर पर असर पड रहा था। दक्षिण से उत्तर की ओर हुए दो बडे आक्रमण जिसमें महामेघवाहन वंश के खारवेल तथा उसके पश्चात सातवाहन शासक यद्यपि उत्तर भारत की राजनीति पर अपनी पकड बनाने में असफल रहे तथापि अपनी पहचान निश्चित रूप से इस शासनों नें छोडी है और चूंकि प्राचीन बस्तर क्षेत्र इन दोनों ही सत्ताओं के अधिकार में रहा अत: विवेचनात्मक दृष्टि से तत्कालीन सामाजिक एवं आर्थिक परिस्थितियों को देखना आवश्यक हो जाता है। बस्तर के वन क्षेत्र आवागमन के मार्ग भी थे जिसकी तस्दीक सातवाहन काल में ही प्राचीन बस्तर में आये चीनी यात्री ह्वेनसांग भी करते हैं तथा कोशल-कलिंग-आन्ध्र की अपनी यात्राओं के दौरान वे प्राचीन बस्तर के घने जंगलों को अपने वर्णन में कई बार सम्मिलित भी करते हैं। मौर्य युग तक आटविक जन उनकी सेना का हिस्सा थे तथा चन्द्रगुप्त नें तो एक अटवि टुकडी ही बना कर उसे अपनी सेना में सम्मिलित किया था (अर्थशास्त्र; कौटिल्य)। आशोक के पश्चात एसी किसी सैन्य टुकडी की जानकारी नहीं मिलती अपितु बस्तर क्षेत्र में मौर्य सत्ता के हस्तक्षेप के प्रति असंतोष भी झलकता है। नागार्जुन एक धुरी हैं जो नालंदा से जुडते हैं कनिष्क की सत्ता में सम्मानित हैं तथा दक्षिण भारत में महायान शाखा के प्रमुख प्रचारक भी हैं। नागार्जुन प्रमाण हैं कि तत्कालीन बुद्धिजीविता सत्ता की सीमाओं से आगे की बात थी तथा विद्वानों का सम्मान सत्तायें किया करती थीं। मध्य भारत और प्राचीन बस्तर की सत्ता में भी उतार चढाव और अस्थिरता की स्थिति निरंतर बनी रही। लगभग 350 ई. तक प्राचीन बस्तर में सातवाहनों की समाप्ति हो गयी थी। इस समय इक्ष्वाकुओं ने दण्ड़कारण्य के पूर्वीभाग पर अपनी संप्रभुता स्थापित की तो उत्तरी भाग में वाकाटकों का प्रभुत्व हुआ। वाकाटक शब्द का प्रयोग प्राचीन भारत के उस राजवंश के लिए किया जाता है जिसने तीसरी सदी के मध्य से छठी सदी तक शासन किया था। तीसरी शताब्दि के मध्य तक वाकाटक संप्रभुता सम्पन्न हो गये थे। राजा प्रवरसेन-प्रथम ने दण्ड़कारण्य के कुछ क्षेत्रों को अज्ञात राजाओं से इसे अपने आधीन किया था।

वाकाटकों के दक्षिण में उदय के साथ ही उत्तर-पूर्वी भारत में गुप्त वंश का उदय हुआ जिसका प्रारंभिक राज्य वर्तमान उत्तर प्रदेश तथा बिहार के कुछ हिस्से थे। मध्य भारत से नाग शासक कुषाणों को गहरी चुनौती प्रस्तुत कर रहे थे। गुप्त साम्राज्य के प्रथम ज्ञात राजा हैं श्रीगुप्त जिनसे प्रारंभ हो कर गुप्त साम्राज्य नें विशाल भारत के एकीकरण का अद्भुत कार्य सम्पन्न कर दिखाया जिसमें सबसे महत्वपूर्ण भूमिका समुद्रगुप्त नें निभाई थी।  समुद्रगुप्त का शासनकाल (325-380 ई.) राजनैतिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से गुप्त साम्राज्य के उत्कर्ष का काल माना जाता है। समुद्रगुप्त एक असाधारण विजेता थे जिनकी महान विजयों कारण विन्सेट स्मिथ ने उन्हें नेपोलियन कहा था। दक्षिणापथ विजय उनका समसे महत्वपूर्ण अभियान था जिसमें उन्होंने बारह महत्वपूर्ण विजय प्राप्त की हैं। उनकी सम्पूर्ण दक्षिणापथ का संक्षेपीकरण किया जाये तो उन्होंने 1) महाकोसल (सम्बलपुर, रायपुर, बिलासपुर आदि छत्तीसगढ के क्षेत्र) के राजा महेन्द्र; 2) महाकांतार (प्राचीन बस्तर) के राजा व्याघ्रराज; 3) कोसल (महानदी के किनारे का क्षेत्र तथा ओडिशा का सोनपुर) के राजा मंतराज; 4) पिष्टपुर (आन्ध्र राज्य के गोदावरी तट से समुद्र तट तक) के राजा महेन्द्रगिरि; 5) कोट्टूर (ओडिशा का गंजाम क्षेत्र) के राजा स्वामीदत्त; 6) विजिगापट्टनम (वर्तमान विशाखापट्टनम); 7) काँची (तमिलनाडु का वर्तमान काँजीवरम) के राजा विष्णुगोप; 8) अवमुक्त (गोदावरी के आसपास का क्षेत्र) के राजा नीलराज; 9) वेंगी (पल्लोर और निकटवर्ती क्षेत्र) के राजा हस्तिवर्मन; 10) पालक्क (आन्ध्र का किल्लुर क्षेत्र) के राजा उग्रसेन; 11) देवराष्ट्र (आन्ध्र के विशाखापट्टनम का निकटवर्ती क्षेत्र) के राजा कुबेर तथा कुशलस्थलपुर (तमिलनाडु का उत्तरी अर्काट जिला) के राजा धनंजय को पराजित किया था। इस तरह दक्षिण भारत के इतने विशाल क्षेत्र पर पहली बार किसी एक सत्ता का ध्वज लहराने लगा था।

रायबहादुर डॉ. हीरालाल नें छत्तीसगढ के इतिहास पर समुद्रगुप्त के आक्रमण का उल्लेख करते हुए लिखा है “समुद्रगुप्त ने महाकौशल अर्थात वर्तमान छत्तीसगढ के राजा महेन्द्र से लडाई की और उसे हरा दिया। इसी प्रकार महाकांतार के राजा व्याघ्रराज को भी हराया था। यहा महाकांतार बस्तर का भाग रहा होगा जहाँ वर्तमान में भी घना जंगल है”। उल्लेखनीय है कि महाकांतारम कांतार, महावन जैसे नामों से बस्तर क्षेत्र को महाभारत समेत अनेक प्राचीन ग्रंथों में सम्बोधित किया गया है। महाकांतार पर समुद्रगुप्त की विजय वर्ष 350 ई. में हुई थी तथा यहाँ के वाकाटक वंश के राजा व्याघ्रराज नें सम्राट की आधीनता स्वीकार कर ली थी। यद्यपि व्याघ्रराज के सम्बन्ध में दो मत प्रचलित हैं कई इतिहासकार उन्हें नल वंश से सम्बन्धित मानते हैं तो कुछ वाकाटक नरेश। नल-वाकाटक दोनो ही राजवंश लम्बे समय तक एक दूसरे को पराजित करते हुए लगभग बारी बारी से प्राचीन बस्तर क्षेत्र में शासक रहे हैं अत: इस प्रकार का भ्रम उत्पन्न होना स्वाभाविक है। व्याघ्रराज अगर वाकाटक नरेश रहे होंगे तो भी उनके पश्चात नल सत्ता का प्राचीन बस्तर क्षेत्र में प्रादुर्भाव हो जाता है। मूल विवेचना का विषय राजवंशों की पहचान अथवा व्याघ्रराज द्वसरा समुद्रगुप्त की आधीनता स्वीकार करना नहीं है अपितु इसके बाद समुद्र गुप्त द्वारा वाकाटक नरेश को स्वायत्त शासन करने का अधिकार देना है। समुद्रगुप्त से बस्तर का सम्बन्ध केवल विजय तक ही सीमित रहा चूंकि उसकी सेनाओं के यहाँ से हटते ही इस वन प्रदेश पर उनके सत्ताचिन्ह नहीं मिलते। समुद्रगुप्त के बाद भी किसी गुप्त शासक नें महाकांतार पर पुन: अधिकार प्राप्त करने की कभी चेष्टा नहीं की। बस्तर गुप्त-वाकाटक सांस्कृतिक सम्बन्धों का अवश्य दर्शनीय स्थल हैं जहाँ गुप्त कालीन अनेक मूर्तियाँ व अवशेष यत्र-तत्र से प्राप्त हो जाते हैं। विवेचनायोग्य तथ्य है कि समुद्रगुप्त महाकांतार जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्र को स्वायत्त रखने के लिये क्यों सहमत हुए? मौर्य यहाँ अपने सत्ता के चिन्ह क्यों नहीं छोड सके? सम्भवत: इस गहन वन क्षेत्र को किसी राजा-सम्राट द्वारा जीता जाना केवल एक प्रतीक की तरह ही रहा होगा और यहाँ कि आदिवासी जनता अपने स्वाभिमान को किसी विजेता की सत्ता के आगे गिरवी रखने को तत्पर कभी नहीं दिखी। यहाँ तो वही सफल शासक रहे जो उनके अपने हो सके।

इतिहासकार अगर कवि भी हो तो घटनाओं के विवरण अत्यधिक रोचक रूप में प्रस्तुत होते हैं। बस्तर के सुप्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. के. के. झा नें समुद्रगुप्त पर पूरा खण्डकाव्य लिखा है। यह खण्डकाव्य समुद्रगुप्त के विजय ही नहीं उसके पश्चात उसे जीवन की निस्सारता पर हुए बिध को बेहद रुचिकर तरीके से प्रस्तुत करता है। डॉ. झा व्याग्रराज को नल शासक निरूपित करते हैं तथा यह मानते हैं कि समुद्रगुप्त नें युद्ध लड कर नहीं अपितु विवाह सम्बन्ध द्वारा प्राचीन बस्तर क्षेत्र पर अधिकार किया था। प्रस्तुत है डॉ. के के झा रचित खण्डकाव्य से संबंधित पंक्तियाँ -

विशाल वन प्रांतर आवेष्ठित, दण्डकारण्य में था यह राज्य
गुरु शुक्राचार्य श्राप से कभी हुआ था निश्चित त्याज्य।

समय फिरा फिर इस अरण्य का, रघुपति का जब हुआ आगमन,
उनके अद्भुत वीर कृत्य से, राक्षस रहित हुआ था यह वन।

सुख समृद्धि पुन: लौटी थी, नल-कुल शासित अंचल था
सद्य: व्याघ्र राज राजा थे, उनका राज्य अचंचल था।

युद्ध नहीं उनको अभीष्ठ था, स्वतंत्रता उनको प्रिय थी,
उनकी शक्ति संधि चर्चा को गति देने को ही सक्रिय थी।

परम-पवित्र परिणय पश्चात संधि सफल सम्पन्न हुई,
सम्बन्धी सह मित्र भावना सहज रूप प्रतिपन्न हुई।

व्याघ्रराज नें निज कन्या का दान किया गुप्त नृपवर को,
नल-कुल में प्रसन्नता छाई, पाकर सर्वश्रेष्ठ वर को।

व्याघ्रराज से मैत्री कर के अतिप्रसन्न थे मागध भूप,
गरुड स्तम्भ स्थापित करवाया, इस मैत्री के प्रतीक स्वरूप।

Friday, November 02, 2012

बस्तर और लाला जगदलपुरी पर्यायवाची शब्द हैं



यह असाधारण सत्य है कि छत्तीसगढ राज्य का बस्तर क्षेत्र अगर किसी एक व्यक्ति को अपनी साहित्यिक-सांस्कृतिक पहचान के रूप में जानता है तो वह लाला जगदलपुरी हैं। तिरानबे वर्ष की आयु, अत्यधिक क्षीण काया तथा लगभग झुक चुकी कमर के बाद भी लाला जी अपनी मद्धम हो चुकी आँख को किसी किताब में गडाये आज भी देखे जाते हैं। अब एक छोटे से कमरे में सीमित दण्डकारण्य के इस ऋषि का जीवन असाधारण एवं अनुकरणीय रहा है। लाला जगदलपुरी दो व्यवस्थाओं के प्रतिनिधि हैं; उन्होंने राजतंत्र को लोकतंत्र में बदलते देखा तथा वे बस्तर में हुई हर उथलपुथल को अपनी पैनी निगाह से जाँचते-परखते तथा शब्दबद्ध करते रहे। वह आदिम भाषा हो या कि उनका लोक जीवन लाला जी से बेहतर और निर्पेक्ष कार्य अब तक किसी नें नहीं किया है। डोकरीघाट पारा का कवि निवास लाला जगदलपुरी के कारण एक पर्यटन स्थल बना हुआ है तथा एसा कोई बुद्धिजीवी नहीं जो बस्तर पर अपनी समझ विकसित करना चाहता हो वह लाला जी के चरण-स्पर्श करने न पहुँचे। लाला जी की व्याख्या उनका ही एक शेर बखूबी करता है  - 

एक गुमसुम शाल वन सा समय कट जाता,
विगति का हर संस्करण अब तक सुरक्षित है। 
मिट गया संघर्ष में सबकुछ यहाँ लेकिन, 
गीतधर्मी आचरण अब तक सुरक्षित है।  
(मिमियाती ज़िन्दगी दहाड़ते परिवेश – 1983)

रियासत कालीन बस्तर में राजा भैरमदेव के समय में दुर्ग क्षेत्र से चार परिवार विस्थापित हो कर बस्तर आये थे। इन परिवारों के मुखिया थे - लोकनाथ, बाला प्रसाद, मूरत सिंह और दुर्गा प्रसाद। इन्ही में से एक परिवार जिसके मुखिया श्री लोकनाथ बैदार थे वे शासन की कृषि आय-व्यय का हिसाब रखने का कार्य करने लगे। उनके ही पोते के रूप में श्री लाला जगदलपुरी का जन्म 17 दिसम्बंर 1920 को जगदलपुर में हुआ था। लाला जी के पिता का नाम श्री रामलाल श्रीवास्तव तथा माता का नाम श्रीमती जीराबाई था। लाला जी तब बहुत छोटे थे जब पिता का साया उनके सिर से उठ गया तथा माँ के उपर ही दो छोटे भाईयों व एक बहन के पालन-पोषण का दायित्व आ गया। लाला जी के बचपन की तलाश करने पर जानकारी मिली कि जगदलपुर में बालाजी के मंदिर के निकट बालातरई जलाशय में एक बार लाला जी डूबने लगे थे; यह हमारा सौभाग्य कि बहुत पानी पी चुकने के बाद भी वे बचा लिये गये।   

लाला जी का लेखन कर्म 1936 में लगभग सोलह वर्ष की आयु से प्रारम्भ हो गया था। लाला जी मूल रूप से कवि हैं। उनके प्रमुख काव्य संग्रह हैं – मिमियाती ज़िन्दगी दहाडते परिवेश (1983); पड़ाव (1992); हमसफर (1986) आँचलिक कवितायें (2005); ज़िन्दगी के लिये जूझती ग़ज़लें  तथा गीत धन्वा (2011)। लाला जगदलपुरी के लोक कथा संग्रह हैं – हल्बी लोक कथाएँ (1972); बस्तर की लोक कथाएँ (1989); वन कुमार और अन्य लोक कथाएँ (1990); बस्तर की मौखिक कथाएँ (1991)। उन्होंने अनुवाद पर भी कार्य किया है तथा प्रमुख प्रकाशित अनुवाद हैं – हल्बी पंचतंत्र (1971); प्रेमचन्द चो बारा कहानी (1984); बुआ चो चीठीमन (1988); रामकथा (1991) आदि। लाला जी नें बस्तर के इतिहास तथा संस्कृति को भी पुस्तकबद्ध किया है जिनमें प्रमुख हैं – बस्तर: इतिहास एवं संस्कृति (1994); बस्तर: लोक कला साहित्य प्रसंग (2003) तथा बस्तर की लोकोक्तियाँ (2008)। यह उल्लेखनीय है कि लाला जगदलपुरी का बहुत सा कार्य अभी अप्रकाशित है तथा दुर्भाग्य वश कई महत्वपूर्ण कार्य चोरी कर लिये गये। यह 1971 की बात है जब लोक-कथाओं की एक हस्तलिखित पाण्डुलिपि को अपने अध्ययन कक्ष में ही एक स्टूल पर रख कर लाला जी किसी कार्य से बाहर गये थे कि एक गाय नें यह सारा अद्भुत लेखन चर लिया था। जो खो गया अफसोस उससे अधिक यह है कि उनका जो उपलब्ध है वह भी हमारी लापरवाही से कहीं खो न जाये; आज भी लाला जगदलपुरी की अनेक पाण्डुलिपियाँ अ-प्रकाशित हैं किंतु हिन्दी जगत इतना ही सहिष्णु व अच्छे साहित्य का प्रकाशनिच्छुक होता तो वास्तविक प्रतिभायें और उनके कार्य ही मुख्यधारा कहलाते। 

लाला जगदलपुरी जी के कार्यों व प्रकाशनों की फेरहिस्त यहीं समाप्त नहीं होती अपितु उनकी रचनायें कई सामूहिक संकलनों में भी उपस्थित हैं जिसमें समवांय, पूरी रंगत के साथ, लहरें, इन्द्रावती, हिन्दी का बालगीत साहित्य, सुराज, छत्तीसगढी काव्य संकलन, गुलदस्ता, स्वरसंगम, मध्यप्रदेश की लोककथायें आदि प्रमुख हैं। लाला जी की रचनायें देश की अनेकों प्रमुख पत्रिकाओं/समाचार पत्रों में भी स्थान बनाती रही हैं जिनमें नवनीत, कादम्बरी, श्री वेंकटेश्वर समाचार, देशबन्धु, दण्डकारण्य, युगधर्म, स्वदेश, नई-दुनिया, राजस्थान पत्रिका, अमृत संदेश, बाल सखा, बालभारती, पान्चजन्य, रंग, ठिठोली, आदि सम्मिलित हैं। लाला जगदलपुरी नें क्षेत्रीय जनजातियों की बोलियों एवं उसके व्याकरण पर भी महत्वपूर्ण कार्य किया है। लाला जगदलपुरी को कई सम्मान भी मिले जिनमें मध्यप्रदेश लेखक संघ प्रदत्त “अक्षर आदित्य सम्मान” तथा छत्तीसगढ शासन प्रदत्त “पं. सुन्दरलाल शर्मा साहित्य सम्मान’ प्रमुख है। लाला जी को अनेको अन्य संस्थाओं नें भी सम्मानित किया है जिसमें बख्शी सृजन पीठ, भिलाई; बाल कल्याण संस्थान, कानपुर; पड़ाव प्रकाशन, भोपाल आदि सम्मिलित है। यहाँ 1987 की जगदलपुर सीरासार में घटित उस अविस्मरणीय घटना को उल्लेखित करना महत्वपूर्ण होगा हब शानी को को सम्मानित किया जा रहा था। शानी जी स्वयं हार ले कर लाला जी के पास आ पहुँचे और उनके गले में डाल दिया; यह एक शिष्य का गुरु को दिया गया वह सम्मान था जिसका कोई मूल्य नहीं; जिसकी कोई उपमा भी नहीं हो सकती।   

केवल इतनी ही व्याख्या से लाला जी का व्यक्तित्व विश्लेषित नहीं हो जाता। वे नाटककार एवं रंगकर्मी भी हैं। 1939 में जगदलपुरे में गठित बाल समाज नाम की नाट्य संस्था का नाम बदल कर 1940 में सत्यविजय थियेट्रिकल सोसाईटी रख दिया गया। इस ससंथा द्वारा मंचित लाला जी के प्रमुख नाटक थे – पागल तथा अपनी लाज। लाला जी नें इस संस्था द्वारा मंचित विभिन्न नाटकों में अभिनय भी किया है। 1949 में सीरासार चौक में सार्वजनिक गणेशोत्सव के तहत लाला जगदलपुरी द्वारा रचित तथा अभिनित नाटक “अपनी लाज” विशेष चर्चित रहा था। लाला जी बस्तर अंचल के प्रारंभिक पत्रकारों में भी रहे हैं। वर्ष 1948 – 1950 तल लाला जी नें दुर्ग से पं. केदारनाथ झा चन्द्र के हिन्दी साप्ताहित “ज़िन्दगी” के लिये बस्तर संवाददाता के रूप में भी कार्य किया है। उन्होंने हिन्दी पाक्षिक अंगारा का प्रकाशन 1950 में आरंभ किया जिसका अंतिम अंक 1972 में आया था। अंगारा में कभी ख्यातिनाम साहित्यकार गुलशेर अहमद खां शानी की कहानियाँ भी प्रकाशित हुई हैं; उल्लेखनीय है कि शानी भी लालाजी का एक गुरु की तरह सम्मान करते थे। लाला जगदलपुरी 1951 में अर्धसाप्ताहिक पत्र “राष्ट्रबंधु” के बस्तर संवाददाता भी रहे। समय समय पर वे इलाहाद से प्रकाशित “लीडर”; कलकत्ता से प्रकाशित “दैनिक विश्वमित्र” रायपुर से प्रकाशित “युगधर्म” के बस्तर संवादवाता रहे हैं। लालाजी 1984 में देवनागरी लिपि में निकलने वाली सम्पूर्ण हलबी पत्रिका “बस्तरिया” का सम्पादन प्रारंभ किया जो इस अंचल में अपनी तरह का अनूठा और पहली बार किया गया प्रयोग था। लाला जी न केवल स्थानीय रचनाकारों व आदिम समाज की लोक चेतना को इस पत्रिका में स्थान देते थे अपितु केदारनाथ अग्रवाल, अरुणकमल, गोरख पाण्डेय और निर्मल वर्मा जैसे साहित्यकारों की रचनाओं का हलबी में अनुवाद भी प्रकाशित किय जाता था। एसा अभिनव प्रयोग एक मिसाल है; तथा यह जनजातीय समाज और मुख्यधारा के बीच संवाद की एक कडी था जिसमें संवेदनाओं के आदान प्रदान की गुंजाईश भी थी और संघर्षरत रहने की प्रेरणा भी अंतर्निहित थी।      

लाला जगदलपुरी से जुडे हर व्यक्ति के अपने अपने संस्मरण है तथा सभी अविस्मरणीय व प्रेरणास्पद। लाला जगदलपुरी के लिये तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह नें शासकीय सहायता का प्रावधान किया था जिसे बाद में आजीवन दिये जाने की घोषणा भी की गयी थी। आश्चर्य है कि मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह शासन नें 1998 में यह सहायता बिना किसी पूर्व सूचना के तब बंद करवा दी; जिस दौरान उन्हें इसकी सर्वाधिक आवश्यकता थी। लाला जी नें न तो इस सहायता की याचना की थी न ही इसे बंद किये जाने के बाद किसी तरह का पत्र व्यवहार किया। यह घटना केवल इतना बताती है कि राजनीति अपने साहित्यकारों के प्रति किस तरह असहिष्णु हो सकती है। लाला जी की सादगी को याद करते हुए वरिष्ठ साहित्यकार हृषिकेष सुलभ एक घटना का बहुधा जिक्र करते हैं। उन दिनों मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह जगदलपुर आये थे तथा अपने तय कार्यक्रम को अचानक बदलते हुए उन्होंने लाला जगदलपुरी से मिलना निश्चित किया। मुख्यमंत्री की गाडियों का काफिला डोकरीघाट पारा के लिये मुड गया। लाला जी घर में टीन के डब्बे से लाई निकाल कर खा रहे थे और उन्होंने उसी सादगी से मुख्यमंत्री को भी लाई खिलाई। लाला जी इसी तरह की सादगी की प्रतिमूर्ति हैं। आज उम्र के चौरानबे वसंत वे देख चुके हैं। कार्य करने की धुन में वे अविवाहित ही रहे। जगदलपुर की पहचान डोकरीनिवास पारा का कवि निवास अब लाला जगदलपुरी के भाई व उनके बच्चों की तरक्की के साथ ही एक बडे पक्के मकान में बदल गया है तथापि लाला जी घर के साथ ही लगे एक कक्ष में अत्यधिक सादगी से रह रहे हैं। लाला जी अब ठीक से सुन नहीं पाते, नज़रें भी कमजोर हो गयी हैं। भावुकता अब भी उतनी ही है; हाल ही में जब मैं उनसे मिला था तो वे अपने जीवन के एकाकीपन से क्षुब्ध थे तथा उनकी आँखें बात करते हुए कई बार नम हो गयीं। लाला जगदलपुरी के कार्यों, उपलब्धियों व जीवन मूल्यों को देखते हुए उन्हें अब तक पद्म पुरस्कारों का न मिलना दुर्भाग्यपूर्ण है। लाला जगदलपुरी को पद्मश्री प्रदान करने माँग अब कई स्तरों पर उठने लगी है; यदि सरकार इस दिशा में प्रयास करती है तो यह बस्तर क्षेत्र को गंभीरता से संज्ञान में लेने जैसा कार्य कहा जायेगा चूंकि बस्तर और लाला जगदलपुरी पर्यायवाची शब्द हैं।

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लाला जगदलपुरी को पद्मश्री की माँग को ले कर एक हस्ताक्शर अभियाच चलाया गया था जिसमें देश विदेश से अनेकों हस्ताक्षर प्राप्त हुए हैं- http://signon.org/sign/padmshree-for-lala-jagdalpur.fb21?source=c.fb&r_by=5402702
     
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Thursday, October 04, 2012

ह्वेनसांग की दक्षिणापथ यात्रा और सातवाहन साम्राज्य

रायपुर से प्रकाशित होने वाले सांध्य दैनिक -  ट्रू सोल्जर में दिनांक 3.10.2012 को प्रकाशित 

प्राचीन बस्तर क्षेत्र में सातवाहनों (72 ई-350 ई तक) की सत्ता का उल्लेख ह्वेनसांग द्वारा अपने यात्रा वृतांत में किया गया है। चीनी यात्री की यह यात्रा यद्यपि 629 से ले कर 645 ई तक ठहरती है। यात्रावृतांत का सूक्षमता से अध्ययन करने पर इसमें तत्कालीन बस्तर का इतिहास ही नहीं मिलता अपितु ह्वेनसांग नें अनेकों निकटवर्ती शासनों के क्षेत्रफल, भूगोल, जनश्रुतियों, मिथकों, आदि; सभी कुछ को उल्लेखित किया है। बौद्ध साहित्य तथा उनके समकालीन एवं पूर्ववर्ती विचारकों व उनसे जुडे साक्ष्यों को वे अतीत से भी खोज निकालते हैं तथा उनका विस्तृत विवरण प्रस्तुत करते हैं। इस यात्रावृतांत में बस्तर के लिये पो-लो-मो-लो-कि-ली; कलिंग के लिये कई-लिंग-किया; कोशल क्षेत्र के लिये क्यि-वस-लो तथा आन्ध्र के लिये अन-त-लो नाम का प्रयोग ह्वेनसांग द्वारा किया गया है। एस एन राजगुरु (आई ओ, खण्ड-4 भुवनेश्वर, 1966) के अनुसार पो-लो-मो-लो-कि-ली बस्तर के अभिलेखों में वर्णित भ्रमरकोट्य मण्डल है। उनके अनुसार यह पर्वत कालाहाण्डी तथा बस्तर की सीमा पर अवस्थित है। एन के साहू अपनी पुस्तक बुद्धिज्म इन ओडिशा में पो-लो-मो-लो-कि-ली को परिमल गिरि मानते हुए इसे सम्बलपुर एवं बालंगीर की सीमा पर स्थित गंधमर्दन पर्वत निरूपित करते हैं। इन सभी क्षेत्रों की जानकारियों को सामूहिक रूप में देखने पर ही प्राचीन बस्तर की तत्कालीन अवस्था का अनुमान लगाया जा सकता है। 

ह्वेनसांग के अनुसार बौद्ध महायान शाखा के महान दार्शनिक ‘नागार्जुन’ ईसा की दूसरी शताब्दी में पो-लो-मो-लो-कि-ली के मठ में रहते थे जो दक्षिण कोसल की राजधानी से दक्षिण-पश्चिम में 300 ली की दूरी पर अवस्थित था। इस क्षेत्र के स्वामी सो-तो-पो-हो (सातवाहन) थे और वही इस मठ के संरक्षक थे। यह विवरण ह्वेनसांग द्वारा कोशल तथा बस्तर क्षेत्र में महान दार्शनिक नागार्जुन के सम्बन्ध में जानकारी एकत्रीकरण की कोशिश के रूप में ही दिया गया है; नागार्जुन और ह्वेनसांग समकालीन नहीं थे। इस दृष्टि से यह समझना भी आवश्यक हो जाता है कि बौद्ध साहित्य तथा सिद्धांतों की खोज में ह्वेनसांग केवल वर्तमान की परिधियाँ ही नहीं नाप रहे थे अपितु बहुत सूक्षमता से उन्होंने अपने समय से पहले के इतिहास का अंवेषण भी किया है। ह्वेनसांग कलिंग में प्रवेश से पहले प्राचीन बस्तर क्षेत्र का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि “हम एक भारी निर्जन वन में पहुँचे जिसके चारो ओर ऊँचे-ऊँचे वृक्ष सूर्य की आड़ लिये हुए आकाश से बातें करते थे”। कलिंग और उसके सीमांत क्षेत्रों जिसमें स्वाभाविकत: बस्तर का क्षेत्र भी सम्मिलित हो जाता है के विषय में ह्वेनसांग बताते हैं कि “जंगल-झाडी सैंकडो कोस तक लगातार चली गयी है। यहाँ पर कुछ हरापन लिये हुए नीले हाँथी मिलते हैं जो निकटवर्ती सूबों में बडे दाम पर बिकते हैं। मनुष्य का स्वभाव उग्र है परंतु वे अपने वचन का पालन करने वाले विश्वसनीय लोग हैं। बहुत थोडे लोग बुद्ध धर्म पर विश्वास करते हैं, अधिकतम लोग विरुद्ध धर्मावलम्बी ही हैं”। प्रकृति के अलावा भी यदि ह्वेनसांग द्वारा प्रस्तुत तथ्य का विश्लेषण किया जाये तो अंग्रेजों के समय तक हाँथी जयपोर (वर्तमान में ओडिशा में अवस्थित) एवं बस्तर रियासत में प्रमुखता से पाये जाते थे। अंग्रेज अधिकारी मैक्जॉर्ज जो कि बस्तर में 1876 के विद्रोह के दौरान प्रशासक था, नें हाथी और उससे जुडी तत्कालीन राजनीति पर एक रोचक उल्लेख अपने एक प्रतिवेदन में किया है – “रियासतों में छोटी छोटी बातों के लिये झगडे होते थे। जैपोर और बस्तर के राजाओं के बीच झगड़े की जड़ था एक हाँथी। जैपोर स्टेट ने बस्तर के जंगलों से चोरी छुपे हाँथी पकड़वाये। इसके लिये वे हथिनियों का इस्तेमाल करते थे। उनकी इसी काम के लिये भेजी गयी कोई हथिनी बस्तर के अधिकारियों ने पकड़ ली। यह बड़ा डिस्प्यूट हो गया। अंतत: अंग्रेज आधिकारियों को इस हथिनी के झगड़े में बीच बचाव करना पड़ा। हथिनी को सिरोंचा यह कह कर मंगवा लिया गया कि बस्तर स्टेट को वापस कर दिया जायेगा लेकिन फिर उसे जैपोर को सौंप दिया गया”। वर्तमान में बस्तर में हाथी नहीं मिलते हैं अत: इस उद्धरण को यहाँ उल्लेखित करने के पीछे मेरा मंतव्य ह्वेनसांग के उल्लेखों और प्राचीन बस्तर में अंतर्सम्बन्ध दर्शाना है। 

कलिंग से जोड कर ह्वेनसांग नें एक मिथक कथा को उल्लेखित किया है जिसके अनुसार “एक समय यह क्षेत्र बहुत घना बसा हुआ था। इतना घना कि रथो के पहियों के धुरे एक दूसरे से रगड खाते थे। एक महात्मा जिन्हें पाँचों सिद्धियाँ प्राप्त थी वे एक उँचे पर्वत पर निवास करते थे। किसी कारण उनकी शक्तियों का ह्रास हो गया तथा लज्जित हो कर उन्होंने श्राप दे दिया जिससे वृद्ध-युवा, मूर्ख-विद्वान, सब के सब समान रूप से मरने लगे, यहाँ तक कि सम्पूर्ण जनपद का नाश हो गया”। इस कथा का सम्बन्ध मैने कलिंग के एतिहासिक परिप्रेक्ष्य में ह्वेनसांग पूर्व की घटनाओं, उद्धरणों और जनश्रुतियों आदि से करने की कोशिश की किंतु हर बार मेरा ध्यान बस्तर से जुडी राजा दण्ड की उस कथा की ओर ही गया जहाँ शुक्राचार्य के अभिशाप से पूरा दण्डकारण्य जनपद नष्ट हो गया था। उल्लेखनीय है कि कलिंगारण्य तथा दण्डकारण्य समानांतर हैं एवं इन दोनों ही क्षेत्रों के इतिहास को जुडवा भाईयों की कहानी की तरह ही देखना उचित प्रतीत होता है। 

ह्वेनसांग कलिंग से दण्डकारण्य होते हुए कोशल तक पहुँचते हैं। अंग्रेज इतिहासकार कनिंघम इस कोशल क्षेत्र की सीमा के भीतर प्राचीन बस्तर, वर्तमान छत्तीसगढ के उत्तरी हिस्सों (कोशल और सन्निकट के क्षेत्र), बरार और बहुतायत गोण्डवाना को सम्मिलित कर लेते हैं एवं राजधानी चाँदा, नागपुर अथवा अमरावती को मानते हैं। फगुर्सन नें ह्वेनसांग द्वारा दिये गये माप ‘ली’ (अर्थात छ: ली का एक मील) को आधार बना कर बैरागढ को कोसल की राजधानी बताया है। महायान सम्प्रदाय की सार्वभौमिकता ही ह्वेनसांग की यात्रा कालीन दक्षिणापथ को एक साथ जोडती प्रतीत होती है तथा राजधानी के स्पष्ट नामोल्लेख न होने के कारण इस विवाद को इतिहासकारों की झोली में डालते हुए हम उस विवरण की ओर लौटते हैं जहाँ ह्वेनसांग कहते हैं कि “विधर्मी तथा बौद्ध दोनो यहाँ पर हैं जो उच्च कोटि के बुद्धिमान और विद्याध्ययन में परिश्रमी हैं। कोई सौ संघाराम और दस हजार से कुछ ही कम साधु हैं जो सब के सब महायान सम्प्रदाय का अनुशीलन करते हैं”। यह कथन निस्संदेह सिरपुर से जुडता है किसकी वर्तमान में अवस्थिति रायपुर से 85 किलोमीटर की दूरी पर है। कभी श्रीपुर कहलाने वाला सिरपुर सोमवंशी राजाओं के समय में कोशल की राजधानी भी रहने का गौरव प्राप्त कर चुका है। इस क्षेत्र में निरंतर जारी खुदाई से इतिहास शनै: शनै: सजीव होने लगा है तथा यह तथ्य सामने आ रहा है कि नालंदा और तक्षशिला से भी प्राचीन शिक्षा-केन्द्र था सिरपुर। सिरपुर में उत्खनन कार्य करा रहे पुरातत्ववेत्ता डॉ अरुण कुमार शर्मा के अनुसार खुदाई में प्राप्त एक स्तूप का सम्बन्ध सीधे ही भगवान बुद्ध से है। यह स्तूप सांची के स्तूप से अलग है और पत्थरों से निर्मित है। पत्थर के स्तूपों के बारे में कहा जाता है कि ऐसे स्तूप भगवान बुद्ध के निर्देशन में ही बनते थे। बौद्ध ग्रंथों में उल्लेख है कि बुद्ध ईसा पूर्व छठीं सदी में सिरपुर आए थे; तब यहां बौद्ध विहारों की स्थापना शुरू हुई। ईसा-पूर्व तीसरी शताब्दी में सम्राट अशोक ने भी इस क्षेत्र में कई स्तूपों का निर्माण कराया। सिरपुर के आलोक में महायान सम्प्रदाय के महान विचारक नागार्जुन की चर्चा करना आवश्यक हो जाता है। 

नागार्जुन दूसरी सदी में न केवल नालंदा में विद्यार्थी थे अपितु बाद में बहुत समय तक वहाँ के प्रधान भिक्षु के रूप में भी कार्यरत रहे। नागार्जुन का सम्बन्ध प्राचीन बस्तर और कोसल से रहा है तथा उनका अनुमानित जीवनकाल 150 ई – 250 ई के मध्य माना जाता है। नागार्जुन माध्यमिक (मध्य मार्ग) मत के संस्थापक थे जिनकी ‘शून्यता’ (ख़ालीपन) की अवधारणा के स्पष्टीकरण को उच्चकोटि की बौद्धिक एवं आध्यात्मिक उपलब्धि माना जाता है। प्राचीन बस्तर में नागार्जुन की अवस्थिति का एक प्रमाण उनका तत्कालीन सातवाहन वंश के राजा {संभवत: यज्ञश्री (173-202)} को लिखा एक पत्र (सुहारिल्लेख, ‘मैत्रिपूर्ण पत्र’) भी है। तथापि ह्वेनसांग नें नागार्जुन के दर्शन और उनकी महानता का वर्णन करने में कोताही नहीं की है। ह्वेनसांग बताते हैं कि नगर के दक्षिण में एक संघाराम है जिसमें नागार्जुन रहा करते थे। एक बार लंका निवासी देव-बिधिसत्व शास्त्रार्थ के लिये आया। द्वारपाल के माध्यम से मिलने से पूर्व नागार्जुन नें आगंतुक की प्रतिष्ठा में एक पात्र में जल भर कर दिया। देव-बोधिसत्व पहले तो जल को देख कर चुप हो गये फिर एक सूई निकाल कर उसमें डाल दी। यह पात्र पुन: नागार्जुन तक पहुँचा तो वे उत्साहित हो कर बोले यह व्यक्ति सूक्ष्म ज्ञान से भरा हुआ है जिसे हृदयंगम करने का सुअवसर हैं इन्हें भीतर बुलाया जाये। नागार्जुन में इसके पश्चात अपने शिष्यों को दो महाविद्वानों के बीच हुए इस मौन वार्तालाप के विषय में बताया कि वस्तुत: उन्होंने ज्ञान की निर्मलता और ग्राह्यता का संदेश जल-पात्र के रूप में भेजा था जिसके प्रत्युत्तर में अपने सूक्ष्म संदेहों की बात देव-बोधिसत्व द्वारा की गयी। ह्वेनसांग बाद में देव-बोधिसत्व में ज्ञान के अहंकार और उसका नागार्जुन द्वारा किये गये निराकरण का भी जिक्र अपने वृतांतों में करते हैं। नागार्जुन से सम्बन्धित कई पुरा-स्थलों को प्राचीन बस्तर में खोजा जाना शेष है। ह्वेनसांग का यह विवरण देखें – “लगभग 300 ली दक्षिण पश्चिम चल कर हम ब्रम्हगिरि नामक पहाड पर पहुँचे। इस पहाड की सूनसान चोटी सबसे ऊँची है। इस स्थान पर सद्वह राजा नें नागार्जुन बोधिसत्व के लिये चट्टान खोद कर उसके भीतर मध्य-मार्ग में एक संघाराम बनवाया था। इस संघाराम के नष्ट किये जाने का उल्लेख भी ह्वेनसांग करते हैं तथापि इसके आकार प्रकार के विवरण से यह प्रतीत होता है कि इस स्थल की खोज एक बडे एतिहासिक धरोहर से हमें परिचित करायेगी। 

प्राचीन बस्तर की जानकारी सीमांत आन्ध्र की उपलब्ध जानकारियों के विश्लेषण के बिना पूरी नहीं होती। ह्वेनसांग लिखते हैं कि दक्षिण दिशा में एक घने जंगल मे जा कर कोई 900 मील चल कर हम ‘अन-त-लो’ (आन्ध्र) देश में पहुँचे। यहाँ की प्रकृति गर्म तथा मनुष्य साहसी होते हैं। वाक्य विन्यास एवं भाषा मध्य भारत से भिन्न है। यह स्थान भी आंशिक रूप से भगवान बुद्ध के प्रभाव में आया एवं एक शून्य पहाड का जिक्र ह्वेनसांग करते हैं जिस स्थान पर जिन-बोधिसत्व नाम के विद्वान द्वारा हेतुविद्या शास्त्र की निर्मिति का उल्लेख मिलता है। उपरोक्त विवरणों से ह्वेनसांग की दक्षिणापथ यात्रा के दौरान बस्तर भी आने का स्पष्ट उल्लेख है तथा कई राज्यों के मध्य की कडी के रूप में एक घना वन प्रदेश भी यह जान पडता है। ह्वेनसांग के माध्यम से यह भी निरूपित करने में हमे सहायता मिलती है कि महान विद्वान नागार्जुन प्राचीन बस्तर से ही सम्बद्ध थे तथा उन दिनों यह क्षेत्र सातवाहनों द्वारा शासित था। नागार्जुन का इतना अधिक सम्मान था कि उनकी सुरक्षा के लिये शासन द्वारा अंगरक्षक भी प्रदान किये गये थे।  

प्राचीन बस्तर में सत्ता का केन्द्र मौर्य सामाज्य के पतन के बाद से ही बदलने लगा था। 72 ई. पूर्व से ले कर 200 ई. तक का समय इस क्षेत्र में दक्षिण भारत के बढते हुए प्रभावों का समय रहा। सातवाहन राजवंश का केन्द्रीय दक्षिण भारत पर अधिकार था। 22 ई. पूर्व में राजा सातकर्णी प्रथम की मृत्यु के बाद सातवाहन निर्बल होते चले गये। सातवाहनों का पुनरुत्थान 106 ई. के बाद, तब हुआ जब, गौतमपुत्र सातकर्णी सिंहासन पर बैठे। 'शक-यवन-पल्हवों' को पराजित कर राजा सातकर्णी ने अपना विशाल साम्राज्य स्थापित किया। अवन्ति, अश्मक, सौराष्ट्र आदि पर विजय प्राप्त करते हुए राजा गौतमीपुत्र सातकर्णि ने कौशल, कलिंग तथा दण्ड़कारण्य के दुर्बल शासक ‘चेदि महामेघवाहन’ को पराजित किया। 350 ई. तक यहाँ सातवाहनों की समाप्ति हो गयी थी। इस समय इक्ष्वाकुओं ने दण्ड़कारण्य के पूर्वीभाग पर अपनी संप्रभुता स्थापित की तो उत्तरी भाग में वाकाटकों का प्रभुत्व हुआ। वाकाटक शब्द का प्रयोग प्राचीन भारत के उस राजवंश के लिए किया जाता है जिसने तीसरी सदी के मध्य से छठी सदी तक शासन किया था। तीसरी शताब्दि के मध्य तक वाकाटक संप्रभुता सम्पन्न हो गये थे। 

Tuesday, September 11, 2012

ईसा-पूर्व के साम्राज्य और गौरवशाली बस्तर


सान्ध्य दैनिक ट्रू सोल्जर में दिनांक 11.09.12 को प्रकाशित 
बौद्ध और जैन मतों का प्रादुर्भाव भारतीय समाजशास्त्र, राजनीति तथा इतिहास की दृष्टि से क्रांतिकारक रहा है। भगवान बुद्ध और महावीर दोनो ही समकालीन थे तथा इस दौर में उत्तरापथ के मगध क्षेत्र पर विशाल साम्राज्यों के निर्माण की रूप रेखा भी चल रही थी। महाकाव्यों के युग से यदि ज्ञात इतिहास का कोई अंतर्सम्बन्ध जुडता है तो उसके लिये हमें प्राचीन मगध (वर्तमान बिहार में अवस्थित) की राजधानी राजगृह तक पहुँचना होगा। 

प्राचीन भारतीय इतिहास से प्राप्त उद्धरणों के अनुसार मगध के एक साम्राज्य बनने की कथा का प्रारम्भ होता है जब कुरुवंशी राजा वसु नें इस क्षेत्र को विजित किया था। उनके निधन के पश्चात बार्हद्रथ सत्तासीन हुए जिनके नाम पर ही बार्हद्रथ वंश पडा तथा मगध की वास्तविक सत्ता और गौरव का प्रारंभिक इतिहास यही से ज्ञात होता है। जरासंध इसी वंश में उत्पन्न प्रतापी तथा शक्तिशाली शासक थे एवं महाभारत कालीन इतिहास इसकी पुष्टि करता है। अंधक-वृष्णि-संघ के राजा श्रीकृष्ण नें पाण्डवों की सहायता से जरासंध का अपनी कूटनीति से वध करवा दिया था। इस राजनीतिक हत्या के बाद बार्हद्रथ वंश का विनाश होने लगा। इस वंश के अंतिम शासक थे - रिपुंजय जिनका उसके ही मंत्री पुलिक नें वध कर दिया था। पुलिक की सत्ता नें अभी पहला कदम भी नहीं रखा था कि भट्टिय नाम के महत्वाकांक्षी सामंत नें विद्रोह कर दिया जिसके परिणाम स्वरूप उनके पंद्रह वर्षीय पुत्र बिम्बिसार को 543 ईसा पूर्व में सत्ता हासिल हुई। बिम्बिसार नें हर्यंक वंश की नींव रखी; वे भगवान बुद्ध के जीवन काल में मगध के शासक थे। कहते हैं उन्होंने तत्कालीन प्रचलित परिपाटी के उलट एक स्थायी सेना रखी हुई थी जिसनें उनकी शक्ति को अपराजेय बना दिया था। बिम्बिसार की आस्था भगवान बुद्ध पर थी जो उनके समकालीन भी थे तथापि उनका शासन सही मायनों में धर्मनिर्पेक्ष माना जायेगा चूंकि जैन मत के अनुसार भी उन्हें सम्मान प्राप्त है और यह भी उल्लेख मिलता है कि वे ब्राम्हणों को भूमिदान आदि भी करते रहते थे। बिम्बिसार की हत्या उनके ही पुत्र अजातशत्रु नें की तत्पश्चात राजगृह से मगध की सत्ता संभाली। अजातशत्रु भी बौद्ध और जैन धर्म का समान आदर करते थे। उन्होंने एक बौद्ध स्तूप का भी निर्माण करवाया था। उनके ही शासनकाल में प्रथम बौद्ध संगिति राजगृह के निकट सप्तपर्णी गुफा में हुई थी। अजातशत्रु की हत्या उनके पुत्र उदायिन (460 – 444 ईसा पूर्व) नें की तथा सत्ता संभाली। उदायिन नें ही राजधानी को राजगृह से गंगा तथा सोन नदी के संगमस्थल पर पाटलीपुत्र के निकट स्थानांतरित कर दिया था। 

यही वह समय भी था जब भारत की राजनीति जनपदो में बँटी हुई थी। इस काल में बाईस महाजनपदों (बौद्ध साहित्य में 16 जनपदों का उल्लेख करता है तथा जैन साहित्यों में भी 16 ही महाजनपदों का उल्लेख है। जैन ग्रंथों के उल्लेख बौद्ध ग्रंथों से बाद के हैं जिसमें दक्षिणभारत के कुछ जनपद अतिरिक्त सम्मिलित हैं। पाणिनी के अष्टाध्यायी में 22 महाजनपद बताये गये हैं।) का उल्लेख मिलता है। यदि शासन प्रणाली की बात की जाये तो बहुतायत महाजनपदों पर किसी न किसी राजा का एकतंत्रात्मक शासन था। ‘गण’ और ‘संघ’ नाम से प्रसिद्ध राज्यों में लोगों का समूह शासन करता था। इस समूह का हर व्यक्ति राजा कहलाता था। कुछ राज्यों में भूमि सहित अर्थिक स्रोतों पर ‘राजा’ और ‘गण’ सामूहिक नियंत्रण रखते थे। हर महाजनपद की राजधानी को क़िले से घेर कर सुरक्षित किया जाता था। दण्ड़कारण्य का क्षेत्र उन दिनों विंध्य पर्वत के दक्षिण में स्थित अश्मक महाजनपद (600 – 321 ईसा पूर्व) का हिस्सा था, जिसकी राजधानी पोतलि थी। बौद्ध साहित्य में इस प्रदेश का, जो गोदावरी तट पर स्थित था, कई स्थानों पर उल्लेख मिलता है। 'महागोविन्दसूत्तन्त' में  अस्सक के राजा ब्रह्मदत्त का उल्लेख है। सुत्तनिपात में अस्सक को गोदावरी-तट पर बताया गया है। इसकी राजधानी पोतन, पौदन्य या पैठान (प्रतिष्ठानपुर) में थी। पाणिनि ने अष्टाध्यायी में भी अश्मकों का उल्लेख किया है। बुद्ध को अपने धर्म का प्रचार करने के लिये अश्मक जनपद से सहायता मिलती रही।

मगध क्षेत्र में अगला शासन शैशुनाग वंश का था, जिसके संस्थापक शिशुनाग माने जाते हैं; इसका काल लगभग पाँचवीं से चौथी शताब्दी ई. पू. के मध्य तक का रहा है। अवंति जिसकी राजधानी उज्जयिनी थी, की शक्ति को तोड देना उनकी सबसे बडी उपलब्धि थी जिसके बाद बहुतायत मध्य क्षेत्र मगध का हिस्सा बने। शिशुनाग के उत्तराधिकारी कालाशोक के द्वारा कलिंग विजय का उल्लेख मिलता है तथापि दण्डक क्षेत्र के उनके आधीन होने की जानकारी नहीं मिलती। बौद्ध धर्म की दृष्टि से यह समय इस लिये भी उल्लेखनीय है क्योंकि द्वितीय बौद्ध संगति इसी काल में बुलाई गयी थी जिसमें कि वैशाली के भिक्षुओं को संघ से बहिष्कृत कर दिया गया था। शैशुनाग वंश की समाप्ति महापद्मनंद के उदित होने के साथ साथ हुई। महापद्मनंद के द्वारा अपने समकालीन जिन राज्यों पर अधिकार कर विशाल साम्राज्य का निर्माण करने का उल्लेख मिलता है उनमें इक्ष्वाकु, पांचाल, काशी, हैहय, कलिंग, अश्मक, कुरु, मैथिलि, शूरसेन तथा वीतिहोत्र राज्य प्रमुख हैं। अर्थात महापद्मनंद के आधीन वह अश्मक जनपद भी हो गया था जिसका हिस्सा प्राचीन बस्तर रहा है। आधीनस्त क्षेत्र होने के बाद भी नंदयुगीन मगध की राजनीति नें सीधे तौर पर दण्डकारण्य को प्रभावित किया हो यह उल्लेख तो नहीं मिलता तथापि बौद्ध तथा जैन दोनों ही मतो के प्रचारकों का प्रादुर्भाव दक्षिणापथ की ओर समय-समय पर होता रहा। जैन धर्म धीरे-धीरे दक्षिण भारत तथा पश्चिम भारत में प्रसारित हुआ जहाँ ब्राम्हणवादिता की जडे तब तक मजबूत नहीं हुई थीं। जैन धर्म के दक्षिण में पुष्पित पल्लवित होने का एक अन्य महत्वपूर्ण कारण समझ में आता है कि महावीर के निर्वाण के 200 वर्ष पश्चात मगध में भारी सूखे की स्थिति आ गयी थी। यह अकाल लगभग बारह वर्षों तक रहा तथा इस समय बाहुभद्र के नेतृत्व में जैन सम्प्रदाय का एक धड़ा दक्षिणापथ की ओर पलायन कर गया। इसके साथ ही जैन धर्म का व्यापक प्रचार-प्रसार दक्षिणी भारत के क्षेत्रों में हुआ जिसका हिस्सा दण्डकारण्य (प्राचीन बस्तर) क्षेत्र भी था। दक्षिण की ओर पलायन कर गये इसी जैन संप्रदाय को बाद में दिगम्बर भी कहा गया है जब कि अकाल के समय स्थलबाहु के नेतृत्व में मगध में ही रह गये जन मतावलम्बी कालांतर में श्वेताम्बर के रूप में वर्गीकृत हुए। 

महापद्मनंद के स्थापित साम्राज्य का अंतिम राजा था धनानंद जिसे चाणक्य की सहायता से पराजित कर चन्द्रगुप्त (322 - 298 ईसा पूर्व) नें मौर्य वंश की नींव रखी थी। आश्चर्य किंतु सत्य यह था कि जिस मौर्य के एकतंत्र-साम्राज्य का हिमालय से ले कर मैसूर तक विस्तार हो गया था, वह आटविक जनपद शासित दण्ड़क और कलिंग क्षेत्र नहीं हथिया सका। मौर्य कालीन प्राचीन बस्तर उस ‘आटविक जनपद’ का हिस्सा था जो स्वतंत्र शासित प्रदेश बन गया था। कौटिल्य का अर्थशास्त्र “अटवि” सेना के महत्व को प्रतिपादित करता है जिससे यह पुष्टि होती है कि सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य ने बस्तर क्षेत्र की जनजातियों के सम्मिलन्न से एक टुकडी का गठन कर उसे अपनी सेना का हिस्सा बनाया था। कालांतर में मौर्य शासक अशोक ने कलिंग़ (261 ईसा पूर्व) को जीतने के लिये भयानक युद्ध किया। एक लाख सैनिक मारे गये, डेढ़ लाख सैनिक कैद किये गये। कलिंग ने अशोक की आधीनता स्वीकार कर ली। अशोक नें जब आक्रमण किया तो उसके प्रतिरोध में दण्डक के योद्धा भी कलिंग के समर्थन में आ गये। यद्यपि कलिंग नें तो अशोक की आधीनता स्वीकार कर ली किंतु आटविक जनपद के दण्ड़क क्षेत्र पर ‘मौर्य-ध्वज’ स्वप्न ही रहा। अपनी इस विफलता को सम्राट अशोक ने स्वीकार करते हुए पत्थर पर खुदवाया – ‘अंतानं अविजितानं; आटविक जन अविजित पड़ोसी है’। इसके साथ ही अशोक नें आटविक जनता को उसकी ओर से चिंतिन न होने एवं स्वयं को स्वतंत्र समझने के निर्देश स्वयं दिये थे – “एतका वा मे इच्छा अंतेषु पापुनेयु; लाजा हर्बं इच्छति अनिविगिन हेयू; ममियाये अखसेयु च में सुखमेव च; हेयू ममते तो दु:ख”। तथापि गंभारतापूर्वक अशोक के शिलालेखों का अध्ययन करने पर मुझे यह प्रतीत होता है कि आटविक क्षेत्र की स्वतंत्रता अशोक को प्रिय नहीं रही थी साथ ही यहाँ की जनजातियों की ओर से अशोक के साम्राज्य को यदा-कदा चुनौतियों का भी सामना करना पड़ा होगा। इस सम्बन्ध में अशोक का तेरहवा शिलालेख उल्लेखनीय है जिसमें उन्होंने स्पष्ट चेतावनी जारी की है कि अविजित आटविक जन किसी प्रकार की अराजकता करते हैं तो वह उनका समुचित उत्तर देने के लिये भी तैयार है। यह कथन इस लिये भी महत्व का है क्योंकि इससे उस सम्राट की बौखलाहट झलकती है जो विशाल साम्राज्यों को रौंद कर उनपर मौर्य ध्वज लहरा चुका था लेकिन आटविक क्षेत्र के आदिवासी जन उसकी सत्ता और आदेश की परिधि से बाहर थे। इसी शिलालेख में अशोक नें आदिम समाज को दी हुई अपनी धमकी पर धार्मिक कम्बल भी ओढाया है और वे आगे लिखवाते हैं कि “देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी वनवासी लोगों पर दयादृष्टि रखते हैं तथा उन्हें धर्म में लाने का यत्न करते हैं।“ यहाँ उल्लेख करना होगा कि मौर्ययुगीन बस्तर क्षेत्र को तब सम्यता से दूर मानना सही व्याख्या नहीं होगी। निश्चित ही सम्राट अशोक नें आटविक क्षेत्रों में बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार की कोशिश की होगी तथा उनसे पूर्ववर्ती शासकों द्वारा भी एसा किया गया होगा। जनपदकाल से ले कर अशोक तक प्राचीन बस्तर में बौद्ध धर्म को ले कर भ्रम व अस्पष्टता की स्थिति होने का मूल कारण है कि इस समय तक यह धर्म अपने हीनयानी सिद्धांतों व नीतियों पर आधारित था जिसमें मूर्तिपूजा का कोई स्थान नहीं था। आज बस्तर क्षेत्र से बौद्ध धर्म तथा भगवान बुद्ध से सम्बन्धित जो भी शिल्प-अवशेष प्राप्त होते हैं वे बहुतायत अशोक एवं उसके बाद के ही हैं। यहाँ की तत्कालीन सभ्यता उच्च कोटि की रही होगी जिसका कि प्रमाण खुदाई में प्राप्त इस युग के पॉलिशयुक्त पात्रों के माध्यम से हो जाता है।     

अशोक के बाद मौर्य साम्राज्य कमजोर पड़ गया था। इसका लाभ उठा कर कलिंग ने स्वयं को स्वतंत्र कर लिया। कलिंग में महामेघवंश (186 – 72 ईसा पूर्व) का उदय हुआ। कलिंग के जैन राजा 'खारवेल' को आर्य महाराज, महामेघवाहन, कलिंगाधिपति, लेमराज, धर्मराज महाविजय राज आदि सम्बोधन प्राप्त थे। उसने मौर्य शासकों के ‘मगध’ को कलिंग साम्राज्य का एक प्रांत बना दिया। राजा खारवेल की आधीनता में आटविक राज्य के अधिकांश क्षेत्र आ गये थे। यह उल्लेख मिलता है कि खारवेल नें आटविक जनों की सहायता से ही पश्चिम में भोजक (विदर्भ) तथा रठिक (महाराष्ट्र) राज्यों को परास्त किया था। इस पश्चिम विजय की जानकारी खारवेल के प्रसिद्ध हाथीगुंफा अभिलेख से होती है तथा इसमें बस्तर क्षेत्र के लिये ‘अपराजेय विद्याधराधिवास’ का प्रयोग किया गया है। इसी अभिलेख से यह भी जानकारी मिलती है कि इसी विद्याधराधिवास क्षेत्र (प्राचीन बस्तर) से खारवेल नें अपने शासन के चौथे वर्ष में रत्न तथा बहुमूल्य सामग्रियाँ छीन ली थीं। यह उल्लेख तत्कालीन बस्तर के दीन हीन नहीं अपितु एक सम्पन्न क्षेत्र होने का आभास दिलाता है। महामेघवाहन-राज्य की स्थापना के साथ दण्ड़कारण्य में जैन-धर्म का भरपूर प्रचार-प्रसार हुआ। बस्तर तथा इसके निकटवर्ती ओडिशा क्षेत्रों से अनेक जैन मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं जिनका निर्माणकाल खारवेल के शासन के समकक्ष पहुँचता है। जैपोर में एसी ही प्राप्त जैन मूर्तियों को रखा गया है जिनमें अधिकतम दिगम्बर प्रतिमायें हैं; सप्तमुखी सर्प की छाया में ध्यानस्त एक दिगम्बर जैन मूर्ति विशेष ध्यान खींचती है। एक उल्लेख (एच.टी.डब्ल्यु; 27.06.1976) अतिमहत्वपूर्ण है जिसके अनुसार बोरिगुम्मा खण्ड के निकट के गाँवों में जैन मंदिर होने के प्रमाण व अवशेष मिलते हैं जिनमें पकनीगुडा तथा कोठारगुडा प्रमुख हैं। स्थानीय आदिवासियों नें यहाँ प्राप्त जैन मूर्तियों को अपना देवता निरूपित कर पूजा आरंभ कर दी है तथा इन्न मूर्तियों के आगे पशु-बलि भी दी जाती है। जैन मतावलम्बियों के प्रभाव में बस्तर का क्षेत्र बहुत लम्बे समय तक रहा है जिसके साक्ष्य के लिये नागयुगीन बस्तर की धरण महादेवी का खुदवाया शिलालेख (1069 ई.) देखा जा सकता है जिसमें महापरिव्राजक पण्डित सोम, साधु सोमन तथा जिणग्राम आदि की चर्चा है। इन्हें अपने शासन के छठवे वर्ष में राजा खारवेल ने राज्य में करमुक्त व्यवस्था लागू कर दी थी। 

सातवाहन राजवंश (72 ईसा पूर्व से 202 ई.) का केन्द्रीय दक्षिण भारत पर अधिकार था। ईसा के जन्म से 22 वर्ष पूर्व, राजा सातकर्णी प्रथम की मृत्यु के बाद सातवाहन निर्बल होते चले गये। सातवाहनों का पुनरुत्थान ईसा के जन्म के 106 वर्ष बाद, तब हुआ जब, गौतमपुत्र सातकर्णी सिंहासन पर बैठे। 'शक-यवन-पल्हवों' को पराजित कर राजा सातकर्णी ने अपना विशाल साम्राज्य स्थापित किया। अवन्ति, अश्मक, सौराष्ट्र  आदि पर विजय प्राप्त करते हुए राजा गौतमीपुत्र सातकर्णि ने कौशल, कलिंग तथा दण्ड़कारण्य के दुर्बल शासक ‘चेदि महामेघवाहन’ को पराजित किया। सातवाहनों की पूर्णरूपेण समाप्ति 350 ई. तक हो गयी थी। सातवाहनों के प्राचीन बस्तर क्षेत्र के लिये किये गये कार्यों का अधिक उल्लेख दे पाने में इतिहास अभी भी मौन साधे हुए है। 

यह उल्लेख करना उचित होगा कि ईसापूर्व का बस्तर घने जंगलों नें तथा दुर्गमतम प्राकृतिक परिस्थितियों के बाद भी एक प्रगतिशील क्षेत्र था। तत्कालीन सभी बडे साम्राज्यों नें इस क्षेत्र पर अधिकार करने अथवा उससे समझौता कर अपने साम्राज्य की सीमाओं को सुरक्षित रखने को आवश्यक समझा। भगवान बुद्ध तथा महावीर के मतो का यहाँ भी समुचित प्रचार-प्रसार हुआ। ये उदाहरण यह भी विचार प्रस्तुत करते हैं कि ईसापूर्व में जब प्राचीन बस्तर क्षेत्र प्रगति तथा गौरव का इतिहास रच रहा था वह अचानक गुमनामी के अंधेरे में कैसे गुम हो गया? इसके लिये इतिहास के आगे के पन्ने पलटने होंगे। 

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