Thursday, December 19, 2013

बस्तर के लोकजीवन में रचा बसा नशा


अक्टूबर 2012 की बात है। भाई अशोक कुमार नाग के साथ उनके गाँव गया था। वहाँ से आदिवासी जीवन की कई महत्वपूर्ण जानकारियाँ मैने एकत्रित की। यह कहना अनुचित न होगा कि महुआ, शराब और नशा लगभग हर घर की कहानी है। किसी न किसी तरह अपने दैनिक उपयोग का नशा आदिवासी परिवार अपने घर अथवा सामूहिक रूप से अपने गाँव में ही तैयार कर लेता है। घर में ही इसे तैयार करने योग्य वस्तुओं, पकाने योग्य हांडी-भट्टी की व्यवस्था रहती है। मैने महसूस किया कि महुआ और शराब सामाजिक सम्बन्धों की प्रगाढता के साथ भी घुल-मिल और रच बस गयी है। इतना ही नहीं यह उनके देवी-देवताओं की भी आवश्यकता है। इस कथन के साथ मैं यह नहीं कहना चाहता कि शराब उचित है अथवा नशा आदिवासी जीवन के लिये अभिशाप नहीं है। निश्चित ही नशा आदिवासी जीवन का अनिवार्य हिस्सा बना हुआ है किंतु यह उनका प्रसंशनीय पक्ष नहीं है। इस बातपर आलेख के उपसंहार में चर्चा करते हैं पहले यह जानने की कोशिश करते हैं कि कितने प्रकार का नशा बस्तर मे जगभग हर आदिवासी जनजाति के दैनिक जीवन का हिस्सा है।

सर्वप्रथम लांदा बनाने की विधि जान लें। चावल को धो कर पीस लिया जाता है। जरूरत समझी गयी तो चावल के साथ कोसरा और मंडिया को भी मिला कर तथा पीस कर इसे तैयार किया जाता है। एक बडे से घड़े में जिसमे नीचे पानी खौल रहा होता है तथा उसके उपर छिद्रों वाली जाली रखी होती है, इसमें इस मिश्रण को रख दिया जाता है। अब भांप सारी प्रक्रिया को अंजाम देता है जिसमे इसे सेंक कर उतार लिया जायेगा। फिर अंकुरित जोंदरा के पावडर से मिला कर इसमे थोडा पानी डाल कर छ:-सात दिनों के लिये रख दिया जायेगा। घडे में अब खमीर उठने लगेगी। यह लांदा बनने की प्रक्रिया का अंतिम चरण है। लांदा का नशा एकदम से नहीं चढ़ता कितु एक बार चढ जाये तो आदिवासी लम्बे समय तक इसके सुरूर के आनंद में झूमते रह्ते हैं। 

इसी तरह सुराम बनाने के लिये मुख्य आवश्यकता है महुवे की। महुवे को धो कर देर शाम तक उबाला जाता है तथा फिर उसे उतार कर ढक लिया जाता है। अब इसे छान कर दूसरी हांडी में डाल दिया जायेगा। इसमें कुछ लोग आम की फांक का भी कभी कभी प्रयोग करते हैं। जितनी देरी से इसका सेवन होगा उतना ही अधिक नशा सिर पर चढेगा।

मंद बनाने के लिये महुआ को पानी में डाल कर किसी हांडी में तीन चार दिनों के लिये रख दिया जाता है। अब यहाँ अपने घरेलू यंत्र में भाप के योगदान से आगे की प्रक्रिया कीजाती है। इस सम्मिश्रण को हल्की आंच दी जाती है तथा इससे निकलने वाली भाप को बर्तन में उपर उठते ही ठंडा कर दूसरे बर्तन में बूंद बूंद एकत्रित कर लिया जाता है। भाप से ठंडा हो कर एकत्रित हुआ तरल पदार्थ ही मंद कहा जाता है। 

इसके अलावा सल्फी और ताड़ी की चर्चा के बिना लोकजीवन मे नशे पर चर्चा अधूरी रहेगी। क्षेत्रवार यदि सल्फी के पेड की तलाश की जाये तो इसका वितरण उत्तर तथा मध्य बस्तर में अधिक हैं जबकि दक्षिण बस्तर में ये कम पाये जाते हैं। दक्षिण बस्तर में ताड़ के वृक्ष ज्यादा हैं और वहाँ के लोग सल्फी की अपेक्षा ताड़ी पीने के अधिक आदी हैं। यह भी जोडना होगा कि यद्यपि ताडी का वृक्ष सल्फी के वंश का ही है; तथापि ताडी सल्फी से कहीं अधिक मादक होती है। सल्फी का रस निकालने के लिये पेड के अग्रभाग को जिसे ‘कली’ कहते हैं को काट दिया जाता है। रस को एकत्रित करने के लिये रस्सी के सहारे नीचे एक घडा बाँध दिया जाता है जिसमे कली से बूंद बूंद टपक कर रस संग्रहित होता रहता है। सल्फी का रंग दूध की तरह सफेद होता है, थोडा पतला भी जैसे किसी ने दूध में पानी मिला दिया हो। पीने पर सल्फी थोडा खट्टापन लिये हुए मीठी सी होती है। लगभग इसी प्रक्रिया से ताडी भी प्राप्त की जाती है अर्थात ताड़ के पेड़ से निकाले गये दूध से बनी मदिरा को ताड़ी कहते हैं। ताजी सलफी अथवा ताड़ी में नशा नहीं होता और यह सुबह सुबह एक ऊर्जा दायक पेय के रूप में पी जाती है। जैसे जैसे दिन चढता है तथा रस में फरमंटेशन की प्रक्रिया जोर पकडने लगती है, रस कडुवा होने लगता है साथ ही अधिक नशीला भी। 

नशा किसी भी समाज की अवनति का ही कारक है तथा एक सीमा से अधिक इसका प्रयोग सर्वथानुकसानदेय ही होता है। यह बात तथाकथित सभ्य कहे जाने वाले समाज पर भी लागू होती है और हमारे आदिवासी भाईयों पर भी। बस्तर में शराब उन्मूलन के जितने भी सरकारी कार्यक्रम चले हैं वे गैर व्यवहारिक है तथा समाजशास्त्र को समझे बिना चलाये जाते रहे हैं। एक समय मे अंग्रेजों ने अपनी शराब को यहाँ खपाने के लिये इनकी परम्परागत शराब को बंद कराने की तमाम तरह की कोशिशे की थी। समय के साथ हमारा अपरिपक्व लोकतंत्र उसी ढर्रे पर चलने लगा तथा उसे नीयम, कानून और प्रतिपादन छोड कर बाकी सब नज़र आना बंद हो गया। परम्परा बन चुकी आदते कानूनो के मथ्थे मार कर नहीं छुडवायी जा सकती वह भी तब जब इसकी आवश्यकता आदमी को ही नहीं उनके बेजुबान देवी-देवताओं को भी रोज ही पडती हो? हम सोचते हैं कि एसी कमरों में बैठ कर आज निर्णय ले लिया कि कल से देसी बंद, शराब बंद और हो गया? होता यह है कि इससे खाकी की चाँदी हो जाती है और उनके रोज के ठर्रे का पुख्ता इंतजाम होने लगता है। आदिवासी समाज में नशा अवमुक्ति किसी कानून से नहीं अपितु समाज की समझ और वैज्ञानिक दृष्टिकोण भरे किसी अभियान से ही संभव है। हाँ, इसके साथ ही इस विषय पर जंगल के भीतर आदिवासी समाज की भलाई के स्वयंभू ठेकेदार अर्थात माओवादियों पर चर्चा भी कर ली जाये। माओवादियों ने समय समय पर शराब बंदी की घोषणाये उसी तरह की है जिस तरह व्यवस्था के पैरोकार करते रहते हैं। एक गाँव के पूर्व सरपंच ने नाम न जाहिर करने की शर्त पर जानकारी दी थी कि असल में उनकी शराबबंदी का मायना सामाजिक बदलाव नहीं अपितु अपनी खुद की सुरक्षा है। एसी कई घटनाये हुई हैं जहाँ नशे में आदिवासियों नें जंगल के भीतर की जानकारियाँ पुलिस के हथ्थे चढते ही उन्हे प्रदान कर दी हैं। अत: नशा तो बंद कराना ही होगा वह भी सख्ती से? कथनाशय यह है कि बस्तर के आदिवासी समाज में नशे की उपलब्धता बहुत सहज है तथा प्रत्येक घर में है। नशा उनके त्यौहारों का हिस्सा है, पूजा-परम्परा का हिस्सा है नृत्य-गीत का हिस्सा है। जितना गहरा नशा यहाँ की सामाजिकता से जुडा हुआ है उतनी ही गहन सोचपूर्णता के साथ बदलाव लाये जाने की आवश्यकता है।

राजीव रंजन प्रसाद 

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Thursday, December 12, 2013

बस्तर में वामपंथ की अवस्थिति पर एक बहस

बहस तो आवश्यक है किंतु वामपंथी नेता संजय पराते ने इसे व्यक्तिगत बना दिया। तथापि; मैं मूल आलेख जिसपर यह बहस आधारित है; उस आलेख पर संजय पराते का जवाब और फिर संजय पराते को मेरा जवाब एक साथ प्रस्तुत कर रहा हूँ। आलेख पढते हुए साथ में प्रस्तुत किये गये आंकडे तालिका पर भी दृष्टि डाली जा सकती है। पहले पढे मेरा जवाब और फिर इसी श्रंखला में अन्य आलेख भी  - 

विफलताओं को छिपाने का श्रेष्ठ बहाना यही है “संजय पराते” जी 
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वामपंथ की बस्तर में जमीन नहीं यह बात तो चुनावी आंकडे सिद्ध कर रहे हैं लेकिन क्यों नहीं है इस बात के लिये आप आईना ले कर उन कथित नेताओं, विचारकों या प्रवक्ताओं के सामने आईये तो; गालिया दे दे कर आपका थोबडा न सुजा दें तो कहियेगा। क्या यही वामपंथ की जमीनी लडाई है और इसी व्यक्तिगत हमलों-झमलों के दम पर इन्हें सारी दुनियाँ चाहिये? इतनी तल्ख शुरूआत क्यों? यह इसलिये क्योंकि मैं व्यक्तिगत हमलों को सोचने समझने और विचारने के दिशा में बाधा मानता हूँ। व्यक्तिगत हमले करने वाले व्यक्तियों से आप जिन्दा विमर्शों की बात सोच ही नहीं सकते उनसे क्या व्यवस्था और अवस्था पर चर्चा होगी? संजय पराते को मैं नहीं जानता। कमल शुक्ला के माध्यम से ज्ञात हुआ था कि वे वामपंथी नेता हैं और बस्तर के चुनावों पर जो मैने आंकडे प्रस्तुत किये हैं उस पर अपनी बात रखेंगे। बात रखी भी गयी लेकिन जो मतदाता ने आईना दिखाया है उस पर नहीं बल्कि हकीकत को सामने लाने के कारण मुझ पर छीटा-कशी। ओह मेचारे मुक्तिबोध..छोडिये मुद्दों पर आते हैं। 

पहले व्यक्तिगत हमलों का जवाब दूंगा फिर तथ्य की बातें। वामपंथी नेता पराते लिखते हैं कि “अपने आपको पॉलिटिक्स से परे घोषित करना इस दौर की सबसे बड़ी पॉलिटिक्स है- राजीव रंजन प्रसाद भी इससे परे नहीं हैं। उनका राजनैतिक दृष्टिकोंण विचारधारा को बेडि़यां समझता है, वे केवल विचारते हैं, इससे उनकी सोच को पंख मिलते हैं। लेकिन गिद्धों के भी पंख होते हैं। उनकी उड़ान गिद्धों की है- और आम जनता को जो गिद्ध-दृश्टि से देखते हैं, इस उड़ान में वे उन्हीं के सहभागी हैं”। आभार पराते जी क्योंकि हम जैसे गिद्ध उस गंदगी को साफ कर रहे हैं जो समाज में घोषित “विचारधारायें” फैला रही हैं यह भी तो सही है न? आप फिर लिखते हैं कि “राजीव रंजन प्रसाद ‘स्थापित राजनीति’ के साथ हैं- यही कारण है कि उनका पहला वोट मनीष कुंजाम को पड़ा होगा, तो अब वे उन्हें नक्सलियों/माओवादियों के साथ जोड़कर देखना पसंद करते हैं- ‘स्थापित राजनीति’ भी यही चाहती है”। यह आपने मेरे लेख को पढे बिना लिखा है या आप “झूठ” जान बूझ कर लिख रहे हैं। मेरा कहना है कि जमीनी वामपंथ कमजोर पडा है जबकि उसे मुखर और मजबूत होना चाहिये। मैं जमीनी लडाईयों का प्रखर समर्थक हूँ और इसीलिये अपने ही एक लेख में मैने टिप्पणी की थी कि मनीष कुंजाम की हार का मुझे दुख़ हुआ है। पर यह भी सच है कि मनीष कुंजाम केवल अपनी फेस-वेल्यु पर लड रहे थे। बस्तर में सभी जगह वामदल अपना दृष्टिकोण नहीं केवल लाल झंडा ही आदिवासी मतदाताओं के सामने रख सके हैं। इस स्वीकारोक्ति से बचने के लिये अनावश्यक तेज आवाज क्यों? नेता होने का मतलब तो आप समझते हैं लेकिन क्या लेखक होने के मायने ज्ञात हैं आपको? मजेदार बात यह है कि बस्तर के कला-संस्कृति-समाज आदि आदि विषयों पर मैं लिखता रहा हूँ तो किसी को आपत्ति नहीं लेकिन जब जब राजनीतिक सच्चाईयों पर कलम चलाओं तो कई कलेजे सुलग जाते है। खैर, व्यक्तिगत हमले पर इतना ही अब तथ्य पर बात करते हैं। 

वामपंथ अपनी सतह खोता गया क्योंकि उसने लेखक तो पैदा किये, विचारक भी पैदा किये लेकिन जमीनी कार्यकर्ता कहाँ हैं? जमीनी कार्यकर्ता बस्तर में चुनावी अभियान के समय कहाँ थे? माना कि कॉग्रेस और भाजपा ने अपने धनबल से बडी बडी रैलियाँ की और परिवर्तन तथा विकास यात्रा के नाम पर चुनाव प्रचार किया लेकिन जनबल का दावा तो आपका है। कहाँ थी वे रैलियाँ? वे मुद्दे बाहर क्यों नहीं आये जिनको सामने रख कर जमीनी वामपंथ कहता कि हम ही विकल्प हैं काँग्रेस और भाजपा के? आपके देखते देखते “आम आदमी पार्टी” ने दिल्ली में वह कर दिखाया जिसकी अपेक्षा वामपंथियों से की जाती रही है। पराते जी आप लिखते हैं कि “वामपंथ पूरे देश में अभियान चला रहा है, प्रदर्षन/धरना/हड़तालें आयोजित कर रहा है, जल-जंगल-जमीन व प्राकृतिक संसाधनों को हड़पने के खेल को कड़ी टक्कर दे रहा है। इस संघर्ष में बस्तर, छत्तीसगढ़ और पूरे देश में वह कितनी सफल हो पाती है, और उसकी असफलता के क्या कारण हो सकते हैं, यह एक अलग मुद्दा है”। मेरा सवाल है कि अलग मुद्दा क्यों है? वाम की केरल पर हाल में भी चर्चा होनी चाहिये, वाम के बंगाल पराजय पर भी बात होनी चाहिये और तो और नेपाल का गढ ढहने पर भे विमर्श होना चाहिये और बस्तर की हार पर भी चर्चा होनी चाहिये। तिरुपति से पशुपति तक है क्या असलियत; केवल त्रिपुरा ही तो? इसका अर्थ यही है कि वाम राजनीति केवल कुछ एनजीओ और पत्र-पत्रिकाओं से चल रही है; जमीन पर आप हैं ही नहीं; इसलिये दिखते भी नहीं और जब कोई आईना दिखाता है तो फिर आपकी मुखरता के क्या कहने? 

आप लिखते हैं वामपंथी वैकल्पिक ताकत का निर्माण करना चाहते हैं मेरा प्रश्न है कि 1947 से 2013 आ गया और इस बीच मुख्य सत्ताधारी दल के कई विकल्प आ गये किंतु वामपंथी इस पंक्ति में कभी क्यों नहीं थे? मुद्दे की बात हो तो अरविन्द केजरेवाल भी शीला दीक्षित को हरा सकता है तो फिर टटोलिये न कहाँ हैं मुद्दे? या फिर कोई मुद्दे हैं ही नहीं हवा हवाई बहसे ही हैं? और काम हम जैसे अदना लेखकों को गरिया कर ही निकाला जा रहा है? मैने अपने आलेख में बस्तर से बात की थी और वही ले जाता हूँ अविभाजित मध्यप्रदेश से ले कर छत्तीसगढ-2013 तक बस्तर में जितने भी चुनाव हुए अधिकतम 5% से अधिक मत सम्मिलित रूप से बस्तर में कभी प्राप्त नहीं हुए क्यों? वह इस लिये क्योंकि वामपंथी जमीन बनाने की कोशिश ही नहीं करते पाये गये। जमीनी वामपंथ से बडी दुनिया तो बंदूखी-वामपंथ ने खडी कर ली और आप देखते रह गये? कभी आत्ममंथन नहीं हुआ, कभी दुबारा आन्दोलन खडा करने की कोशिश नहीं की गयी यहाँ तक कि मनीष कुंजाम को छोड कर कोई ठीक ठाक नेता भी बस्तर को वामपंथ ने अब तक नहीं दिया है। 

मुझे यह कहने में गुरेज नहीं है कि बस्तर का आदिवासी दो पाटों में पिस रहा है। यह बात मैने अपनी कवितओं-लेखों के माध्यम से कई बार कहीं हैं। किंतु इससे वामदलों की सक्रियता नहीं सिद्ध होती। वामपंथी राजनेता पूरे पाँच वर्ष परिदृश्य से बाहर रहते हैं और फिर चुनावों में उनसे अपेक्षा की जाये तो वही परिणाम होंगे जिसका की आंकडा मैने प्रस्तुत किया है। भाजपा और कांग्रेस को आप दोष इस लिये दे रहे हैं क्योंकि यह सबसे आसान तरीका है अपनी अवस्थिति छिपाने का। वामदल एक राजनैतिक पार्टी की हैसियत रखते हैं तो उसने अपेक्षायें भी उसी तरह की होंगी? या जो आपने कॉग्रेस-भाजपा पर टिप्पणी की है वही वामपंथियों की भी सच्चाई है अर्थात – हमप्याले, हमनिवाले?

आप लिखते हैं कि इस चुनाव में “वामपंथियों के पास वैकल्पिक नीतियाँ थीं, अपने चुनाव प्रचार में वह इन नीतियों को लेकर आम जनता के बीच में गयी” हो सकता है रही होंगी लेकिन न तो वे आपकी सभाओं से बाहर आयीं न ही आपके मुद्दों ने आन्दोलन का कोई रूप लिया। अगर इतना ही प्रभाव था जिसका कि आप दावा कर रहे हैं तो “नोटा” में पडे वोटों से भी दयनीय हालत आपकी पार्टी की क्यों हुई? जवाब में चाहें तो आप मुझे फिर दो चार गालियाँ दे सकते हैं क्योंकि न तो आत्ममंथन वामपंथियों का स्वभाव रहा है न ही अपने छद्म गुरूर से बाहर यह राजनैतिक दल आसानी से आयेगा। आप फिर लिखते हैं कि “चुनाव के समय टिड्डियों के दल की तरह कांग्रेस-भाजपा निकलती है, वामदल नहीं। वामपंथ साल के 365 दिन और चैबीसों घंटे जन संघर्शों को गढ़ने और रचने में जुटा है”। इस कथन पर क्या टिप्पणी करूं आप बस्तर के चुनाव परिणाम में वामदलों की हैसियत देखें, जनता को आप बेवकूफ समझते हैं तब तो कोई बात नहीं अन्यथा तो आप 365 दिन छोडिये 1950 के पहले चुनाव से अब तक केवल तीन सीट ही निकाल सके हैं। 

संजय पराते जी, आपकी मुझ पर नाराजगी उचित ही है क्योंकि यही वामपंथी दलों को बस्तर के चुनाव में मिली विफलताओं को छुपाने का श्रेष्ठ और सुलभ बहाना है। शुभकामनायें। 

-राजीव रंजन प्रसाद 

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पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है? 
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[यह आलेख मेरे उस आलेख पर वामपंथी नेता श्री संजय पराते का मुझको जवाब है जिसे मैने इसी आलेख के नीचे हू-बहू प्रस्तुत किया है।] 


जब-जब वामपंथ पर हमले होंगे, हमलावरों को मुक्तिबोध के सवाल का जवाब देना ही होगा कि -‘‘पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है ?’’ अपने आपको पॉलिटिक्स से परे घोषित करना इस दौर की सबसे बड़ी पॉलिटिक्स है- राजीव रंजन प्रसाद भी इससे परे नहीं हैं। उनका राजनैतिक दृश्टिकोंण विचारधारा को बेडि़यां समझता है, वे केवल विचारते हैं, इससे उनकी सोच को पंख मिलते हैं। लेकिन गिद्धों के भी पंख होते हैं। उनकी उड़ान गिद्धों की है- और आम जनता को जो गिद्ध-दृश्टि से देखते हैं, इस उड़ान में वे उन्हीं के सहभागी हैं। ‘विचारधारा विहीन विचार’ आज की सबसे बड़ी विचारधारा है, क्योंकि प्रतिक्रियावादियों को ऐसे ही विचार रास आते हैं, जो मानवीय संवेदना से बहुत-बहुत दूर हो। ऐसे विचार किस विचारधारा की पुष्टि करते हैं, इसे बताने की जरूरत नहीं हैं।

कुछ लोग होते हैं (और ऐसे सनकी-पागल लोग बहुत कम होते हैं) जो पहले अपनी विचारधारा और राजनीति तय करते हैं और बाद में वे इसे स्थापित करने का कठिन कार्य करते हैं। लेकिन ऐसे ’चतुर सयानों’ की कोई कमी नहीं होती, जो ‘स्थापित राजनीति’ के साथ चलने में ही अपनी भलाई देखते हैं। राजीव रंजन प्रसाद ‘स्थापित राजनीति’ के साथ हैं- यही कारण है कि उनका पहला वोट मनीष  कुंजाम को पड़ा होगा, तो अब वे उन्हें नक्सलियों/माओवादियों के साथ जोड़कर देखना पसंद करते हैं- ‘स्थापित राजनीति’ भी यही चाहती है। इस राजनीति में ही भाजपा का भला है और कांग्रेस का भी.....और राजीव रंजन का भी! तो राजीव रंजन से और तमाम मित्रों से मेरा पहला अनुरोध यही है कि संसदीय वामपंथ (भाकपा-माकपा) को नक्सलियों/माओवादियों से अलग करके देखें। ऐसा इसलिए कि संसदीय वामपंथ पूरे देश  में ही नक्सलवाद के निशाने पर रहा है....इसीलिए उत्तर बस्तर में भी रहा है और दक्षिण में भी। कारण स्पष्ट है--यदि संसदीय वामपंथ प्रगति करेगा, तो माओवादी कमजोर होंगे। संसदीय वामपंथ को माओवादी तो बढ़ते हुए देखना ही नहीं चाहते, देश  और प्रदेश  की दोनों प्रमुख पार्टियां-- कांग्रेस और भाजपा-- भी नहीं चाहतीं। आखिर संसदीय वामपंथ ही तो कांग्रेस-भाजपा की नवउदारवादी नीतियों के खिलाफ तनकर खड़ा है-- और एक वैकल्पिक नीतियों को सामने रखकर। वैष्वीकरण-उदारीकरण-निजीकरण की जिन नीतियों पर कांग्रेस-भाजपा के बीच व्यापक सहमति है (चुनावी नूरा-कुष्ती को छोड़ दें तो), उनको तेजी से लागू करने के खिलाफ रोड़ा तो वामपंथ ही है। वही पूरे देश  में अभियान चला रहा है, प्रदर्षन/धरना/हड़तालें आयोजित कर रहा है, जल-जंगल-जमीन व प्राकृतिक संसाधनों को हड़पने के खेल को कड़ी टक्कर दे रहा है। इस संघर्ष में बस्तर, छत्तीसगढ़ और पूरे देश  में वह कितनी सफल हो पाती है, और उसकी असफलता के क्या कारण हो सकते हैं, यह एक अलग मुद्दा है। निष्चित ही वामपंथ के शुभचिंतकों और ‘स्थापित राजनीति’ के सहचरों का विश्लेषण अलग-अलग ही होगा। 

पूंजीवाद शोषण पर आधारित व्यवस्था है। यह व्यवस्था पहले अस्तित्व में आती है--शोशक वर्ग के लिए इस व्यवस्था को बनाये रखने का औचित्य प्रतिपादित करने वाली विचारधारा का विस्तार बाद में होता है। यह काम आज भी बड़े पैमाने पर हो रहा है। साम्यवाद उस विचारधारा को प्रतिपादित करती है, जो शोषण पर आधारित पूंजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने का संकल्प लेती है। यहां विचारधारा पहले स्थापित होती है, व्यवस्था निर्माण का काम बाद में। इस विचारधारा के विस्तार का काम आसान नहीं है, लेकिन वामपंथ ने अपनी विचारधारा और राजनीति तय करली है और इस राजनीति को स्थापित करने के काम में वे अनथक/अविचल लगे हुए हैं। इस काम में कहीं वे जमते हैं, तो कहीं जमी-जमायी जगह से उखड़ते भी हैं। लेकिन वामपंथ के इस जमने-उखड़ने की तुलना कांग्रेस-भाजपा की हार-जीत की तरह नहीं की जा सकती। आखिर पूंजीवादी व्यवस्था का विकल्प षोशणहीन, वर्गहीन समाज व्यवस्था ही हो सकती है-- आखिर ऐसी व्यवस्था में ही समानता, स्वतंत्रता और भाईचारा के बुनियादी लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है। और सभी जानते हैं कि कांग्रेस-भाजपा पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ नहीं है, तो फिर वे मानवता के बुनियादी लक्ष्यों के साथ कैसे हो सकते हैं? 

तो वामपंथी ताकतें वैकल्पिक व्यवस्था का निर्माण करना चाहती हैं, वो इसके लिए वैकल्पिक नीतियां पेष कर रही है, उन ताकतों की प्रगति कौन चाहेगा? सही वामपंथ को कुचलने के लिए कांग्रेस-भाजपा को छद्म वामपंथ से भी हाथ मिलाने में कभी गुरेज नहीं रहा। कौन नहीं जानता कि बस्तर में भाकपा-माकपा के नेता/कार्यकर्ता ही नक्सलियों/माओवादियों के सबसे ज्यादा षिकार हुए हैं। कौन नहीं जानता कि इन माओवादियों के लिए आर्थिक संसाधन इनके नेताओं, अधिकारियों, व्यापारियों, ठेकेदारों की दहलीजों से ही निकलते हैं और कौन नहीं जानता कि चुनाव में लेन-देन करके इन्हीं छद्म वामपंथियों का उपयोग कांग्रेस-भाजपा अपने हित में करती है। तो कांग्रेस-भाजपा वाकई चाहेगी कि माओवाद/नक्सलवाद खत्म हो, इनको कुचलने के नाम से आ रहे आर्थिक संसाधनों में भ्रष्टाचार खत्म हो और ‘स्थापित राजनीति’ के खिलाफ सही वामपंथ को पनपने का मौका मिले? इन दोनों पार्टियों इनकी सरकारों ने नक्सलियों को कुचलने के नाम पर वामपंथी कार्यकर्ताओं को ही अपने दमन का षिकार बनाया है। नक्सलियों/माओवादियों की ‘अघोषित/असंवैधानिक’ सप्ताह को स्थापित करने का काम इन दोनों पार्टियों ने बड़े ही सुनियोजित तरीके से किया है। 

वामपंथी ताकतों ने इस देष में आजादी की लड़ाई लड़ी है। आज भी वे साम्राज्यावदी संघर्षों  और विचारों की वाहक है। अमेरिका के नेतृत्व में साम्राज्यवाद आज भी अपनी लूट-खसोट की नीति को जारी रखना चाहता है और इसके लिए नये-नये उपनिवेष स्थापित करना चाहता है। इसके लिए विष्व-अर्थव्यवस्था पर वह अपना प्रभुत्व जमाना चाहता है। उदारीकरण-निजीकरण-वैष्वीकरण की नीतियां इसी लूट-खसोट और शोषण की मुहिम का ही अंग है। स्पश्ट है कि जो इन नीतियों के साथ है, वह आम जनता का दुष्मन है। उसे अमेरिकी हितों और पूंजीपतियों के स्वार्थों की तो चिंता सताती है, लेकिन आम जनता के दुख-दर्दों से वह न केवल आंखें मूंदे रहता है, बल्कि उसके बुनियादी मानवीय अधिकारों को भी कुचलने में भी उसे कोई हिचक नहीं होती। 

राजीव रंजन जी, आप भी जानते हैं कि मानव विकास सूचकांक के पैमानों पर छत्तीसगढ़ की क्या स्थिति है? चुनावी दावों और प्रतिदावों को छोड़ दिया जाये तो सरकारी हकीकत यही है कि छत्तीसगढ़ देष के सबसे पिछड़े राज्यों में से एक है। तो छत्तीसगढ़ के सबसे पिछड़े इलाके बस्तर की स्थिति का अनुमान सहज लगाया जा सकता है। पूरी दुनिया में प्राकृतिक संसाधनों की लूट का सबसे निर्मम शिकार वंचित वर्ग हो रहा है और छत्तीसगढ़ के बस्तर में आदिवासियों पर ही इन नीतियों की बर्बर मार पड़ रही है। बस्तर देशी -विदेशी  कंपनियों की ‘लूट का चारागाह’ बन गया है। नागरिकों को उनके घरों में सुरक्षा देने की संवैधानिक जिम्मेदारी सरकारों की है, लेकिन बस्तर के आदिवासियों को इससे महरुम कर दिया गया। नक्सलियों/माओवादियों से तो निपटने में इन सरकारों की नानी मरती है, लेकिन राज्य प्रायोजित सलवा जुडूम (ध्यान रहे, सुप्रीम कोर्ट ने इसे पूरी तरह असंवैधानिक करार दिया है) के नाम पर घरों को जलाने, महिलाओं से बलात्कार करने, उनकी हत्यायें करने और उन्हें गांव से विस्थापित करने और एसपीओ के नाम पर अवयस्क बच्चे के हाथों में बंदूकें थमाने का ‘बहादुरीपूर्ण’ काम ये करते रहे हैं। आदिवासियों को कीड़े-मकोड़ों की तरह कुचलने में इन्हें जरा भी शर्म महसूस नहीं होती। ऐसा करते हुए ‘राज्य’ नामक संवैधानिक सत्ता को मानवाधिकारों की कभी याद नहीं आयी।

नक्सलियों/माओवादियों का तो मानवाधिकारों से कोई लेना-देना ही नहीं है, लेकिन ‘राज्य के संवैधानिक कर्तव्यों के उल्लंघन का अधिकार’ भाजपा सरकार को किसने दिया? माओवादियों द्वारा राज्य के कानूनों का उल्लंघन किसी भी आपराधिक कार्य की तरह निष्चित ही निंदनीय और दण्डनीय है, लेकिन भाजपा द्वारा संचालित ‘राज्य की संवैधानिक सत्ता’ को किसने ये अधिकार दिया है कि वह सोनी सोरी नामक नक्सली महिला (यदि वह नक्सली है!- और याद रखें, इस महिला पर सरकार के तमाम आरोप फर्जी साबित हो रहे हैं) के गुप्तांगों में पत्थर भर दें (मेडिकल रिपोर्ट से यह साबित हो चुका है) और ऐसी बहादुरी के लिए संबंधित पुलिस अधिकारी को राश्ट्रपति के ‘वीरता पुरस्कार’ से सम्मानित किया जाये? राजीव रंजन जी, लिंगा कोड़ोपी की पत्रकारिता को आपकी पत्रकारिता की तरह भाजपा सरकार ने सामान्य दृश्टि से न देखकर ‘खतरनाक’ क्यों माना और नक्सली करार दे दिया? हिमांशु कुमार के दंतेवाड़ा के आश्रम को गैर कानूनी रुप से ध्वस्त करने का अधिकार भाजपा सरकार को किस संविधान ने दिया था? असलियत यही है कि आदिवासियों के मानवाधिकारों का हनन नक्सली भी कर रहे हैं और भाजपा सरकार भी। 

लेकिन आदिवासियों के मानवाधिकारों का हनन कोई आज की बात नहीं है। मध्यप्रदेष में कांग्रेस राज में भी यही सब हो रहा था। कांकेर के आमाबेड़ा थाने में मेहतरराम नामक आदिवासी को नक्सली कहकर मार दिया गया। अंतागढ़ थाने में मोहन गोंड नामक आदिवासी को नक्सली वर्दी पहनाकर फोटो खींची गयी और कांकेर थाने में कई दिनों तक उसे बंधक बनाकर रखा गया। केशकाल के पास धनोरा थाने में एक आदिवासी अविवाहित युवती को नक्सली कहकर कई दिनों तक बंधक बनाकर रखा गया, उसके साथ बलात्कार किया गया और हाथ पैरों में जंजीर बांधकर ‘नक्सलियों को पहचानने’ के लिए बाजार में घुमवाया गया। ये सब इस गरीब बस्तर के गरीब आदिवासियों की ‘सत्यकथायें’ हैं। ये नक्सली थे कि नहीं, यह तय करने काम अदालतों की जगह पुलिस को किसने दिया?-- और यदि ये नक्सली थे भी, तो इनके मानवाधिकारों के हनन का अधिकार पुलिस और राज्य सरकार को किसने दे दिया था? ये सभी मामले माकपा नेता की हैसियत से मैंने स्वयं मानवाधिकार आयोग में दर्ज कराये थे। मानवाधिकार आयोग ने इन मामलों की छानबीन का आदेश  भी दिया था। तत्कालीन एसडीएम संजीव बख्शी की अदालत में तमाम पीडि़तों और संबंधित गवाहों को मयशपथ पत्र मैंने पेश  किया था-- पुलिस द्वारा एनकाउंटर करने की धमकी की परवाह न करते हुए भी। लेकिन पूरा आयोग इसके बाद चुप बैठ गया। इतनी कसरत करवाने के बाद आयोग ने इन मामलों में फैसला देने की जहमत नहीं उठायी। आयोग की आलमारियों के किसी अंधेरे कोने में पड़े ये दस्तावेज आज भी सड़ रहे होंगे। पार्टनर, आपकी पहुंच तो काफी है- थोड़ा इन दस्तावेजों को सामने लाने की उठा-पटक करोगे? थोड़ा पता करोगे कि मानवाधिकार आयोग के अधिकारों का हनन करने में किसकी दिलचस्पी थी? थोड़ा पता करोगे कि बस्तर के तत्कालीन कमिष्नर सुदीप बैनर्जी ने नक्सलवाद से निपटने के लिए जो रिपोर्ट मध्यप्रदेश सरकार को दी थी और जिसे विधानसभा के पटल पर रखा गया था, उस सार्वजनिक रिपोर्ट का क्या हुआ? ‘सूचना का अधिकार’ के तहत मांगने पर सरकार ने उसे गुप्त (?) दस्तावेज बताते हुए मुझे देने से इंकार कर दिया है। इसे हासिल करने में आप मेरी मदद करोगे? 

तो राजीव जी, माकपा-भाकपा पर सरकार और दोनों पार्टियों के हमलों की तुलना भाजपा राज में कांग्रेस पर दमन से न करें। कांग्रेस ने यदि सशक्त विपक्ष की भूमिका निभायी होती, तो आज वह सत्ता से दूर नहीं रहती और यदि उस पर वर्गीय दमन होता, तो वह इतनी सीटें नहीं ले पाती। सत्ता पर कब्जा किसका रहे और मलाई का हिस्सा ज्यादा किसको मिले, इसे तय करने के लिए दमन-दमन का खेल खेला जाता है। मत भूलिये कि जोगीराज में भाजपा भी ऐसे ही कांग्रेसी दमन का शिकार होती थी। लेकिन रात के अंधेरे में हम-प्याले, हम-निवाले। 

वामपंथ की कमजोरी यही है कि अपनी सही वैकल्पिक राजनीति को आम जनता के बीच स्थापित नहीं कर पायी। इस दिषा में उसे एक लंबा रास्ता तय करना है इस विकल्प के अभाव में कांग्रेस-भाजपा के बीच ही धु्रवीकरण बना हुआ है। नीतिगत रुप से दोनों पार्टियों के बीच कोई अंतर नहीं है। यही कारण है कि दोनों पार्टियों के बीच वोटों का प्रतिषत अंतर सिमटकर 0.77 प्रतिशत  रह गया है। पिछले बार यह पौने दो प्रतिशत से अधिक था। यदि भाजपा की नीतियां छत्तीसगढ़ की गरीब जनता के जीवन को सकारात्मक रुप से प्रभावित करती, तो यह अंतर बढ़ता--लेकिन ऐसा नहीं हुआ। नोटा के रुप में तीन प्रतिशत  से अधिक-- 4 लाख से ऊपर-- मतदाताओं ने निर्णायक रुप से दोनों ही पार्टियों को ठुकराया है। यदि इनके पास तीसरे विकल्प के रुप में वामपंथी-जनवादी विकल्प होता, तो न भाजपा को सत्ता मिलती, न कांग्रेस को बहुमत।

चुनाव में वामपंथ के पास लाल झंडा था, तो उसने अपना झंडा लहराया-- ठीक वैसे ही जैसे भाजपा ने भगवा और कांग्रेस ने बहुरंगा झंडा लहराया। लेकिन वामपंथ के पास वैकल्पिक नीतियां थीं-- अपने चुनाव प्रचार में वह इन नीतियों को लेकर आम जनता के बीच में गयी। उसने कांग्रेस-भाजपा की कथनी-करनी और लफ्फाजियों को पर्दाफाष भी किया। सार्वजनिक वितरण प्रणाली, रोजगार गांरटी, वनाधिकार कानून, प्राकृतिक संसाधनों की लूट, महंगाई, बेरोजगार, भ्रश्टाचार, प्रदेष का पिछड़ापन.........सभी मुद्दों पर वामंपथ ने आम जनता के बीच अपनी बातों को रखने का प्रयास किया। अवश्य ही साधन सीमित थे। चुनाव आयोग द्वारा गठित ‘गणमान्य’ व्यक्तियों की स्क्रीनिंग कमेटी ने आकाश वाणी और दूरदर्षन से प्रसारित होने वाले मेरे पार्टी संबोधन को दिशा -निर्देष और आचार संहिता के नाम पर मनमाने तरीके से कांट-छांट की कोशीश  की। भाजपा सरकार की तरह ही इन बेचारों का जिंदल प्रेम अपने पूरे उफान पर था। माकपा ने उनकी हर कोशीश को नाकाम करते हुए अपनी नीतिगत बातें रखीं प्रदेश  में प्राकृतिक संसाधनों की हो रही लूट के मामलों में माकपा ने हीं जिंदल को निषाने पर रखा-- कांग्रेस-भाजपाईयों की तो घिग्घी बंधी थी! वामपंथ ने अपना पूरा चुनाव प्रचार नीतियों पर केन्द्रित किया। 

लेकिन क्या कांग्रेस-भाजपा ने भी ऐसा ही किया? दोनों के पास केवल लोकलुभावन घोशणाएं हीं थीं। नीतियों पर तो उन्हें बहस से ही परहेज है। कांग्रेस के पास धान का समर्थन मूल्य 2 हजार रुपये क्ंिवटल देने तथा राषन दुकानों से मुफ्त अनाज देने का वादा था (क्या इसके लिए राज्य में कांग्रेस सरकार की जरूरत है?) , तो भाजपा के अपनी तथाकथित उपलब्धियों की भरमार। लेकिन वादों और उपलब्धियों के बावजूद सच्चाई क्या है? कांग्रेस के मौजूदा 35 विधायकों में से नेता प्रतिपक्ष सहित 27 हार गये। भाजपा के 5 धाकड़ मंत्री सहित विधानसभा अध्यक्ष-उपाध्यक्ष और 5 संसदीय सचिव तथा 18 विधायक हार गये। और ये इसके बावजूद हुआ है कि दोनों ही पार्टियों ने खुलकर षराब, मुर्गा, पैसा, साड़ी, कंबल का सहारा लिया। तो क्या आम जनता ने कांग्रेस-भाजपा की नीतियों व उनकी कथनी-करनी पर टिप्पणी नहीं की हैं? यदि इनकी उपलब्धियां और कथनी-करनी सकारात्मक होती, तो इन पार्टियों को लोकतंत्र को स्वाहा करने की जरूरत नहीं पड़ती। 

इसलिए चुनाव के समय टिड्डियों के दल की तरह कांग्रेस-भाजपा निकलती है, वामदल नहीं। वामपंथ साल के 365 दिन और चैबीसों घंटे जन संघर्शों को गढ़ने और रचने में जुटा है। आदिवासियों के प्राकृतिक संसाधनों को हड़पने की टाटा की नीति के खिलाफ भाकपा ही आगे रही है, कांग्रेस नहीं। आदिवासियों के मानवाधिकारों के हनन के खिलाफ वामपंथ ही लड़ाई लड़ रही है, कांग्रेस नहीं। वनाधिकार कानून व रोजगार गारंटी कानून के क्रियान्वयन के लिए वामपंथ ही लड़ रही है, कांग्रेस नहीं। यही कारण है कि भले ही वामपंथ अपने संघर्शों व प्रभावों को सीटों में बदलने में सफल न हो पा रहा हो, लेकिन वामपंथ की मारक शक्ति से इस देष की राजनीति में उसकी प्रभावषाली भूमिका से कोई इंकार नहीं कर सकता। यही कारण है कि अलेक्स पाल मेनन के अपहरण के मामले में मनीष कुंजाम मध्यस्थ के रुप में स्वीकार किये जाते हैं। वे सरकार और माओवादी दोनों के बीच मध्यस्थ थे और भाजपा सरकार ने ही उन्हें हेलिकाप्टर उपलब्ध करवाया था। लेकिन इस मामले से आदिवासियों पर मुकदमों की समीक्षा के लिए जो समिति गठित की गयी, उसका काम फिसड्डी साबित हुआ तो इसमें भाजपा सरकार दोशी नहीं है? निदोश आदिवासी आज भी जेलों में हैं। तो मानवाधिकारों का हनन कौन कर रहा है? असलियत तो यही है कि नक्सल समस्या को बढ़ाने में भाजपा सरकार का बड़ा हाथ है। यदि नक्सली नहीं रहेंगे, तो भाजपा कहां रहेगी? 

राजीव रंजन को वेब पोर्टल और फेसबुक पर कांग्रेस-भाजपा का प्रचार नहीं दिखता, लेकिन उन्हें यहां वामपंथ का ‘हवाई’ प्रचार जरूर दिख गया। वामपंथ को इस मीडिया पर आने के लिए क्या षर्मिंदा होना चाहिए? सभी जानते हैं कि कांग्रेस-भाजपा राज की कृपा मीडियाकर्मियों पर भले ही न हुयी हो, लेकिन मीडिया माफिया पर यह कृपा जमकर बरस रही है। मीडिया में चाटुकार पत्रकारों की एक ऐसी फौज तैयार हो गयी है, जो सच्चाई लाने के बजाय सत्ता पक्ष की बगलगीर रहने में अपनी भलाई देखती है। सत्ता की पक्षधरता अपना प्रभाव बढ़ाने और सुविधायें जुटाने का साधन बन गयी है। सामान्य मीडियाकर्मियों को उचित वेतनमान भी नहीं मिलेगा। साईं रेड्डी की नक्सली हत्या करेंगे, तो कमल शुक्ल को सत्ता जनसुरक्षा कानून की धौंस दिखायेगी। राजीव रंजन जी, अपने मित्रों के लिए कुछ तो कीजिए।

तो पार्टनर, वामपंथ अपनी जमीन तलाषने की कोषिष कर रहा है, इस तलाष में उसकी राजनीति की दिषा स्पश्ट है। यदि आप वामपंथ को गरियाना चाहते हैं तो उसके लिए स्वतंत्र हैं। लेकिन जब हम बहस कर रहे हैं, तो आपको यह जवाब तो देना ही होगा--‘‘पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है ?’’

---संजय पराते

मूल आलेख जिस पर केन्द्रित है बहस: 

बस्तर में वामपंथ की कोई जमीन है भी? 
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बस्तर पर सर्वाधिक चर्चा वामपंथी ही करते हैं। माओवाद की आलोचना करने पर सबसे तल्ख प्रतिवाद वामपंथियों से ही प्राप्त होता है। बस्तर क्षेत्र में इस बार हुए चुनाव यह तो स्पष्ट कर रहे हैं कि माओवाद अपनी जमीन खो चुका और अधिकाधिक मतदाताओं ने बाहर आ कर लोकतंत्र के पक्ष में मतदान किया है। अब उस वामपंथ पर बात की जाये जिसने बैलेट से अपना शक्तिप्रदर्शन किया है। चुनावों से पहले ही कोण्टा, दंतेवाडा और बीजापुर सीट पर वामपंथी उम्मीदवारों के विजय की भविष्य़वाणी अनेको अतिउत्साही वाम-विचारधारापरक पत्रिकाओं और वेबपोर्टलों में की जा रही थीं। यह समझने के लिये मैने स्थानीय पत्रकार दोस्तों से लगातार यह जानने की कोशिश की कि विशेषरूप से दक्षिण बस्तर में वामपंथी दल किन मुद्दों के साथ बाहर आये हैं, उनकी घोषणायें क्या हैं, तथा चुनावस प्रचार में अपनी बात किस तरह रख रहे हैं। अधिकतर जानकारियाँ यही प्रतीत हुईं कि कोण्टा में मनीष कुंजाम अपनी फेस-वेल्यु पर लड रहे हैं लेकिन सभी जगह वामदल अपनी दृष्टिकोण नहीं केवल लाल झंडा ही आदिवासी मतदाताओं के सामने रख सके हैं। 

चुनाव परिणाम वामदलों के दिवास्वप्नों पर कुठाराघात था। यह ठीक है कि पूरा चुनाव ही दो बडी राष्ट्रीय पार्टियों के बीच का हो गया था लेकिन वामदल तो हमेशा ही अपनी उपस्थिति और प्रभाव का बस्तर में दावा करते रहे हैं। आज यह सवाल उठता ही है कि पिछले पाँच सालों में वाम दलों ने कितनी बार जमीनी मुद्दों को सडक तक लाने का श्रम किया? मनीष कुंजाम भी चार साल की गुमनामी बिता कर एकाएक चुनाव के समय सक्रिय हुए। यह बस्तर हो या दिल्ली जमीन पर अपनी ठोस उपस्थिति दिखाये बिना आप एक सीट पर भी अपनी जीत का दावा नहीं रख सकते। बस्तर वाम दलों ने खुल कर कभी वाम चरमपंथ का विरोध भी नहीं किया तथा स्पष्ट रूप से उनसे अपनी दूरी भी दिखाने मे वे नाकामयाब रहे हैं। जब सुकमा के कलेक्टर एलेक्स पॉल मेनन का अपहरण किया गया था तब मनीष कुंजाम का माओवादियों द्वारा नाम मध्यस्त के रूप में आगे किया जाना उनके खिलाफ ही गया लगता है। वामपंथी दल बस्तर की बारह में से नौं सीटों पर लडे और उन्हें तीसरे से ले कर दसवे स्थान तक की प्राप्ति हुई और वे कहीं भी मुख्य मुकाबले में नहीं थे। उन्होंने पूरे चुनाव प्रचार के दौरान सडक पर भी अपनी ठोस उपस्थिति नहीं दर्ज कराई बल्कि उनके जमीनी प्रचार से अधिक हवाई प्रचार तो बेवपोर्टल और फेसबुक पर सक्रिय वामपंथी करते दिखे। 

तो बस्तर में जमीनी वामपंथ की क्या हैसियत है इसपर बात करने के लिये नतीजों पर एक दृष्टि डालते है। कोंटा में कवासी लकमा फिर एक बार अपनी सीट समुचित बहुमत से निकाल ले गये जबकि दूसरा स्थान भाजपा को मिला है। पिछले चुनाव में दूसरे स्थान पर रहे वामपंथी इस बार पुन: मनीष कुंजाम के नेतृत्व में थे किंतु तीसरे स्थान पर खिसक गये और हार भी लगभग आठ हजार मतो से हुई है। दंतेवाडा (12954) और चित्रकोट (11099) छोड कर वामदलों को अन्य सभी सीटों में गिनती के वोट ही हासिल हुए हैं। अधिकतम सीटों पर तो इस वैकल्पिक राजनीतिक दल से अधिक मत बस्तर के मतदाताओं नें “नोटा” को दिया है। वामदल एकता के साथ भी नहीं लडे यहाँ तक कि जगदलपुर में तो सीपीआई और सीपीआई (एम-एल) एक दूसरे के खिलाफ ही चुनाव लड रही थी और दोनो को मिलाकर भी गिनती के वोट (3321) मिले। वाम दलों को न्यूनतम 655 मत (जगदलपुर में शंभु प्रसाद सोनी) तो अधिकतम 19384 मत (कोण्टा में मनीष कुंजाम) को प्राप्त हुए जो इस दल की क्षेत्र में बेहद पतली हालत का प्रदर्शन है और यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं कि वामपंथ अब बस्तर में कोई जमीनी हैसियत नहीं रखता। 

-राजीव रंजन प्रसाद

बस्तर में वामपंथ की कोई जमीन है भी?

बस्तर पर सर्वाधिक चर्चा वामपंथी ही करते हैं। माओवाद की आलोचना करने पर सबसे तल्ख प्रतिवाद वामपंथियों से ही प्राप्त होता है। बस्तर क्षेत्र में इस बार हुए चुनाव यह तो स्पष्ट कर रहे हैं कि माओवाद अपनी जमीन खो चुका और अधिकाधिक मतदाताओं ने बाहर आ कर लोकतंत्र के पक्ष में मतदान किया है। अब उस वामपंथ पर बात की जाये जिसने बैलेट से अपना शक्तिप्रदर्शन किया है। चुनावों से पहले ही कोण्टा, दंतेवाडा और बीजापुर सीट पर वामपंथी उम्मीदवारों के विजय की भविष्य़वाणी अनेको अतिउत्साही वाम-विचारधारापरक पत्रिकाओं और वेबपोर्टलों में की जा रही थीं। यह समझने के लिये मैने स्थानीय पत्रकार दोस्तों से लगातार यह जानने की कोशिश की कि विशेषरूप से दक्षिण बस्तर में वामपंथी दल किन मुद्दों के साथ बाहर आये हैं, उनकी घोषणायें क्या हैं, तथा चुनावस प्रचार में अपनी बात किस तरह रख रहे हैं। अधिकतर जानकारियाँ यही प्रतीत हुईं कि कोण्टा में मनीष कुंजाम अपनी फेस-वेल्यु पर लड रहे हैं लेकिन सभी जगह वामदल अपनी दृष्टिकोण नहीं केवल लाल झंडा ही आदिवासी मतदाताओं के सामने रख सके हैं। 

चुनाव परिणाम वामदलों के दिवास्वप्नों पर कुठाराघात था। यह ठीक है कि पूरा चुनाव ही दो बडी राष्ट्रीय पार्टियों के बीच का हो गया था लेकिन वामदल तो हमेशा ही अपनी उपस्थिति और प्रभाव का बस्तर में दावा करते रहे हैं। आज यह सवाल उठता ही है कि पिछले पाँच सालों में वाम दलों ने कितनी बार जमीनी मुद्दों को सडक तक लाने का श्रम किया? मनीष कुंजाम भी चार साल की गुमनामी बिता कर एकाएक चुनाव के समय सक्रिय हुए। यह बस्तर हो या दिल्ली जमीन पर अपनी ठोस उपस्थिति दिखाये बिना आप एक सीट पर भी अपनी जीत का दावा नहीं रख सकते। बस्तर वाम दलों ने खुल कर कभी वाम चरमपंथ का विरोध भी नहीं किया तथा स्पष्ट रूप से उनसे अपनी दूरी भी दिखाने मे वे नाकामयाब रहे हैं। जब सुकमा के कलेक्टर एलेक्स पॉल मेनन का अपहरण किया गया था तब मनीष कुंजाम का माओवादियों द्वारा नाम मध्यस्त के रूप में आगे किया जाना उनके खिलाफ ही गया लगता है। वामपंथी दल बस्तर की बारह में से नौं सीटों पर लडे और उन्हें तीसरे से ले कर दसवे स्थान तक की प्राप्ति हुई और वे कहीं भी मुख्य मुकाबले में नहीं थे। उन्होंने पूरे चुनाव प्रचार के दौरान सडक पर भी अपनी ठोस उपस्थिति नहीं दर्ज कराई बल्कि उनके जमीनी प्रचार से अधिक हवाई प्रचार तो बेवपोर्टल और फेसबुक पर सक्रिय वामपंथी करते दिखे। 

तो बस्तर में जमीनी वामपंथ की क्या हैसियत है इसपर बात करने के लिये नतीजों पर एक दृष्टि डालते है। कोंटा में कवासी लकमा फिर एक बार अपनी सीट समुचित बहुमत से निकाल ले गये जबकि दूसरा स्थान भाजपा को मिला है। पिछले चुनाव में दूसरे स्थान पर रहे वामपंथी इस बार पुन: मनीष कुंजाम के नेतृत्व में थे किंतु तीसरे स्थान पर खिसक गये और हार भी लगभग आठ हजार मतो से हुई है। दंतेवाडा (12954) और चित्रकोट (11099) छोड कर वामदलों को अन्य सभी सीटों में गिनती के वोट ही हासिल हुए हैं। अधिकतम सीटों पर तो इस वैकल्पिक राजनीतिक दल से अधिक मत बस्तर के मतदाताओं नें “नोटा” को दिया है। वामदल एकता के साथ भी नहीं लडे यहाँ तक कि जगदलपुर में तो सीपीआई और सीपीआई (एम-एल) एक दूसरे के खिलाफ ही चुनाव लड रही थी और दोनो को मिलाकर भी गिनती के वोट (3321) मिले। वाम दलों को न्यूनतम 655 मत (जगदलपुर में शंभु प्रसाद सोनी) तो अधिकतम 19384 मत (कोण्टा में मनीष कुंजाम) को प्राप्त हुए जो इस दल की क्षेत्र में बेहद पतली हालत का प्रदर्शन है और यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं कि वामपंथ अब बस्तर में कोई जमीनी हैसियत नहीं रखता।

-राजीव रंजन प्रसाद 

नोटा ने कईयों के अरमानो को लूटा – संदर्भ बस्तर

बहुत हद तक यह लग रहा था कि बस्तर इस बार भारतीय जनता पार्टी के लिये विपरीत परिणाम देने वसला है। जानकारों ने कोंटा और दंतेवाड़ा पर भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी के पक्ष में अपने अनुमान (एग्जिट पोल) व्यक्त किये थे जबकि यह माना जा रहा था कि सात सीट कॉग्रेस को, तीन भाजपा और दो कम्युनिष्ट पार्टियों को मिलेंगे। परिणाम चार सीट भाजपा तथा आठ कॉग्रेस के पक्ष मे था। वामपंथी प्रत्याशियों की करारी हार यह बताती है कि बंदूख के साये से यदि वे बाहर न आये तो उनकी जमीनी लडाईयाँ भी असरकारक नहीं होंगी। सभी विश्लेषकों ने महेन्द्र कर्मा फैक्टर को बहुत हल्के में लिया और देवती कर्मा को कम कर के आंका गया। यह स्पष्ट है कि बस्तर में महेन्द्र कर्मा के प्रति सहानुभूति थी दंतेवाड़ा विधाससभा सीट पर 77% मतदान के रूप में आदिवासियों ने अभिव्यक्त भी कर दी। यह इतना बड़ा मतप्रतिशत है जितना कि देश के सभ्यतम माने जाने वाले क्षेत्रों में वोट भी नहीं पड़ते।

आज बात करते हैं नोटा पर। पूरे छत्तीसगढ में 3% लोगों ने नोटा का बटन दबाया और किसी भी पार्टी के पक्ष में मतदान नहीं किया। यह इतना बड़ा वोटों का हिस्सा था जिसने निश्चित ही कहीं कॉग्रेस का गणित बिगाड़ा तो कहीं भाजपा का। आश्चर्य की बात यह कि देर शाम तक नोटा के जो आंकडे बस्तर की बारह सीटों में सामने आये वह बताते हैं कि यह दोनो ही राजनीतिक पार्टियों के लिये खतरे की घंटी है और बहुतायत आदिवासी जनता ने लोकतंत्र पर तो भरोसा दिखाया किंतु प्रत्याशियों को नकार दिया। यदि नोटा मे पडे मत प्रत्याशियों के साथ जुडे होते तो परिणामों में और भी उठापटक देखी जा सकती थी। कांकेर (5208 मत), कोण्डागाँव (6773 मत), भानुप्रतापपुर (5680 मत), केशकाल (8381 मत), नारायणपुर (6731 मत), जगदलपुर (3469 मत), चित्रकोट (10848 मत), अंतागढ (4710 मत), बस्तर (5529 मत), दंतेवाडा (9677 मत), कोण्टा (4001 मत), बीजापुर (7179 मत) में नोटा का बटन बहुत अच्छी मात्रा में दबाया गया। इसका अर्थ यह है कि बस्तर में नोटा के लिये न्यूनतम 3469 मत (जगदलपुर) से ले कर अधिकतम 10848 मत (चित्रकोट) प्राप्त हुए। मतप्रतिशत के हिसाब से अधिकतम बीजापुर मे 10.15% मतदाताओं ने अपने 7179% मतो का प्रयोग नोटा के रूप में किया। अनेक प्रत्याशियों की जीत का अंतर भी नोटा में पडे मतों से कम था (नोट: अंतिम आंकडे अभी विश्लेषित किये जाने हैं।)। नोटा यह बताता है कि बस्तर का जागरूक मतदाता यह जानता है कि उसे किसको वोट देना है और अगर किसी को भी नहीं देना तो भी लोकतंत्र को बचाने का अपना दायित्व उसने निर्वहन किया है; इस तरह प्रत्याशियों से नाराजगी भी दिखाई गयी और नक्सलियों को अंगूठा भी।

-राजीव रंजन प्रसाद 


Saturday, December 07, 2013

“बस्तर से विलुप्त होती उसकी पहचान – तूम्बा”


यह प्रश्न अब प्रासंगिक है कि क्या तूम्बा बस्तर में अप्रासंगिक होता जा रहा है? तूम्बा और बस्तरिया आदिवासी बहुत लम्बे समय से एक दूसरे की पहचान सदृश्य हैं। एक समय लगभग हर आदिवासी कंधे की शान हुआ करता था तूम्बा। संदर्भ पर विस्तार से बात की जाये इससे पहले यह बताना आवश्यक है कि तूम्बा है क्या और यह किस तरह निर्मित होता है?

लौकी के फल से तूम्बे का निर्माण किया जाता है। प्राय: लौकी के पुराने अथवा बुढ़ा गये फल ही तूम्बा निर्माण के लिये चुने जाते हैं। आवश्यकतानुसार समुचित आकार और प्रकार का फल तोड़ कर सर्वप्रथम उसका शीर्ष भाग काट कर निकाल लिया जाता है। अब इसी काटे गये हिस्से की ओर से बहुत सावधानी पूर्वक लौकी के भीतरी अंश को किसी नुकीली वस्तु से धीरे धीरे निकाल कर खोखला बनाया जाता है। खोखला हो जाने के पश्चात भीतर पानी भर कर इस खोल अथवा ढांचा मात्र रह गये लौकी के फल को किसी कोने में यूं ही छोड दिया जाता है। स्वाभाविक है कि अगले आठ दस दिनों मे भीतरी भाग पूरी तरह सड़ जायेगा जिससे भीतर जो कुछ भी अंश है उसे आसानी से बाहर निकाला जा सकेगा। अब सड़े हुए अंश को सावधानी पूर्वक निकालने के पश्चात लौकी के फल का केवल एक आवरण भर रह जाता है जिसे भली भांति सुखा कर ठोस बना लिया जाता है। ठोस हो जाने के पश्चात तूम्बा अपने आप में एक मजबूत संरचना होती है जो किसी बर्तन, घट अथवा पात्र का विकल्प बन सकती है। इस तरह तैयार होता है एक तूम्बा जो वस्तुत: आदिवासियों का वाटरबोटल, सल्फीहोल्डर, पेज कैरियर आदि आदि का काम बखूबी करता है। तरह तरह की वस्तुवों को संरक्षित रखने योग्य भांति भांति के आकार वाले पात्र यहाँ तक कि छिंदरस या शराब परोसने के लिये ओरकी (चम्मच) बनाना भी तूम्बे से किया जाता है। अब पेड़ से सल्फी, छींद या ताड़ का रस उतारना हो तो भी तूम्बा ही आदिवासी समाज का प्रमुख सहयोगी है।

किसी वस्तु की समाज में उपादेयता जानने का पैमाना है कि क्या मिथक कथाओं और लोकगीतों में भी उसका उल्लेख मिलता है? तूम्बा आपको हर कहीं मिलेगा यहाँ तक कि मुहावरों और पहेलियों में भी। एक गोंडी मिथक कथा तो तूम्बे को संसार की उत्पत्ति के साथ जोड़ती है क्योंकि एसा मानना है कि जब कुछ भी कहीं नहीं था तब भी तूम्बा था। बस्तर का पालनार गाँव ही वह स्थल है जहाँ से धरती के उत्पन्न होने की आदिवासी संकल्पना जुडती है। गोंडी मिथक कथा मानती है कि सर्वत्र पानी ही पानी था बस एक तूम्बा पानी के उपर तैर रहा था। इस तूम्बे में गोंडों का आदिपुरुष, डड्डे बुरका कवासी, अपनी पत्नी के साथ बैठा हुआ था। तभी कहीं से भीमादेव अर्थात कृषि का देवता प्रकट हुआ और हल चलाने लगा। जहाँ जहाँ वह नागर (हल) चलाता धरती प्रकट होने लगती। जब दुनिया की आवश्यकता जितनी धरती बन गयी तब भीमादेव ने हल चलाना बंद कर दिया। अब उसने पहली बार धरती पर अनाज, पेड-पौधे, लता-फूल, जड़ी -बूटियाँ, घास-फूस उगा दिये। जहाँ जहाँ मिट्टी हल चलाने से खूब उपर उठ गयी थी, वहाँ पहाड़ बन गये। इसके बाद डड्डे बुरका कवासी ने धरती पर अपनी गृहस्थी चलाई। उसको दस लड़के और दस लडकियाँ हुईं। आपस में उनकी शादियाँ कर दी गयी। इस तरह दस गोत्र – मडकामी, मिडियामी, माडवी, मुचाकी, कवासी, कुंजामी, कच्चिन, चिच्चोंड, लेकामी और पुन्नेम बन गये। इन्ही गोत्रों में किसी के पेट से बकरा तो किसी के उल्लू तो किसी के साँप आदि पैदा हुए। इसी तरह पूरी सृष्टि बन गयी। ‘डड्डे बुरका कवासी’ ने अपने बेटों को आदेशित कर दिया कि एक ही गोत्र में विवाह वर्जित है।“ यह कथा वस्तुत: आज आदिवासी समाज के विस्तार को समझने का बहुत ही उपयुक्त माध्यम है किन्तु यह समझना भी आवश्यक है कि तूम्बा इस सृष्टि उत्पत्ति कथा के केन्द्र में है। यही कारण है कि आदिवासी समाज बहुत आदर और सम्मान के साथ तूम्बे को अपने साथ रखता है। एक भतरी कहावत है कि ‘तूम्बा गेला फूटी, देवा गेला उठी’ अर्थात तूम्बा का फूटना एक अपशकुन है।“

तूम्बा केवल दैनिक उपयोग की वस्तु नहीं है। इसे आदिवासी समाज ने अपनी कलात्मक अभिव्यक्ति का माध्यम भी बनाया है। प्राय: मंद या सल्फी के सुरूर में थिरकने वाले कदमों के बाद भी आदिववासी अपने कंधे पर एक लकडी जिससे लटकता हुआ तूम्बा थामे मिलेंगे। ये तूम्बे किसी तैलीय पदार्थ लेपन के कारण चमकते हुए अथवा किसी भित्तिचित्र के उसपर उकेरे जाने के कारण सुन्दर दीख पडते हैं। तूम्बे पर उकेरे जाने वाले भित्तिचित्रों में आदिवासी जीवन, भांति भांति की मानवआकृतियाँ जिसमे गौर सींग माडिया और तिरहुड्डी बजाती नृत्यांगनायें, पेड-पौधे, पशु पक्षी आदि प्रमुख हैं। कई आदिवासी तो तूम्बे को सुरक्षा और सुन्दरता प्रदान करने के लिये उसे गुथी हुई रस्सी से पूरी तरह गाथ देते हैं। इतना ही नहीं अंचल के कई वाद्य हैं जैसे किंदरी, तोहेली, डुमिर, रामबाजा....इन सभी में तूम्बे का घट लगा होता है। घोटुल मुरिया तो अपने कई नृत्यों में तूम्बों से भयानक मुखौटे भी बना कर प्रयोग में लाते हैं। तूम्बे से बने मुखौटों का यदि आज भी भव्य प्रदर्शन देखना है तो माँ दंतेश्वरी के सम्मान मे दंतेवाड़ा में प्रतिवर्ष लगने वाली फागुन मड़ई में इसे देखा जा सकता है। फागुन मडई में आदिवासी गँवर, चीतल, कोड़री, खरगोश जैसे जानवरों का स्वांग रच कर नृत्य करते हैं जिसके लिये तूम्बे से बने मुखौटों का प्रयोग किया जाता है।

बदलाव अवश्यम्भावी हैं किंतु इसका अर्थ यह नहीं कि किसी संस्कृति को अपनी पहचान से ही हाथ धो बैठना पड़े। यह होगा कि बाजार धीरे धीरे बस्तर को अपने आगोश में जकड़ लेगा। देखते ही देखते लकडी की पड़िया के स्थान पर प्लास्टिंक की कंघिया आ गयीं बिलकुल उसी तर्ज में मिनरल वाटर की खाली बोतलों ने तूम्बे का स्थान लेना आरंभ कर दिया है। प्रयोग करो और फेंको की बाजार प्रदत्त सुविधा ने आदिवासियों को जाने-अनजाने ही तूम्बों से दूर कर दिया है। पहले जहाँ तूम्बा हर कंधे की शोभा बढाता था अब दसियों मे से किसी एक के पास आपको नजर आयेगा; यहाँ तक कि मेले मड़ईयों में भी बहुत तलाश के बाद ही दृष्टिगोचर होता है। हालात यह हैं कि अब इसके संरक्षण की आवश्यकता महसूस होने लगी है। यह सामाजिकता का स्वाभाविक नियम है कि जो वस्तु चलन मे नहीं रहती वह विलुप्त होने लगती है। बस्तर की कितनी ही दुर्लभ वस्तुवे, प्रथायें और रिवाज अब अस्तित्व में नहीं हैं, क्या यही हश्र तूम्बे का भी होने जा रहा है? क्या तूम्बे को कलात्मक वस्तुओं की श्रेणी मे सम्मिलित कर संरक्षित नहीं किया जा सकता? क्या तूम्बे को पेनस्टेंड बना कर स्ट्डी रूम में, चम्मच आदि रखने के लिय किचन में अथवा भित्तिचित्रों से सुसज्जित कर ड्राईंगरूमों में जगह नहीं दी जा सकती? बाजार जिसे छीन रहा है उसे ही आज बाजार मिल जाये तो क्या संरक्षण को नयी दिशा नहीं मिलेगी? बस्तर में शिक्षित आदिवासी अब लगातार बढ रहे हैं और आवश्यकता यह भी है कि वे अपनी संस्कृति का मोल समझें और स्वयं इसके संरक्षण के लिये आगे आयें। तूम्बे के बिना बस्तर अर्थात जल बिन मछली की कल्पना करना है।

- राजीव रंजन प्रसाद
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Thursday, December 05, 2013

बस्तर में जीवन और कला के सहचर हैं घाँस और पत्ते


साधारण तत्वों की असाधारण प्रस्तुति को कला कहते है। कलात्मकता लोकजीवन का अभिन्न हिस्सा है जिसे मिट्टी से ले कर पत्थर तक और पेड की छाल से ले कर घाँस-पत्तों तक के दैनिक प्रयोग मे देखा जा सकता है। कला और आदिवासी समाज का इतना गहन सम्बन्ध है कि आप घास-पात में भी कल्पनातत्वों की उडान देख सकते हैं और दैनिक आवश्यकताओं के अनुरूप उनके प्रयोग का तरीका अचरज में डालता है। पत्ते दैनिक आवश्यकता हैं और साल वनो के द्वीप में सर्वत्र उपलब्ध हैं। इनका भोजन-पेय अथवा पदार्थों के संरक्षण के लिये प्रयोग होता ही है, पहनावे और सजावटी वस्तुओं में भी पत्तो का समुचित उपयोग देखा गया है। पत्ते श्रंगार की वस्तु भी हैं, वे कभी जूडों-खोंपों में खोंसे हुए नजर आ सकते हैं, कभी आभूषण या परिधान बने गले अथवा कमर में लटके देखे जा सकते हैं; खैर अथवा छींद की पत्तियाँ चबा कर युवतियाँ अपने होठों का श्रंगार भी करती हैं तथा उन्हें रंग प्रदान करती हैं। यही नहीं पत्ते लोक-चिकित्सा का हिस्सा भी हैं और औषधि भी। पतों पर कई लोककथायें हैं, ये लोकगीतों में बसे हैं कहावतों और पहेलियों में छिपे हैं। 

पहेलियाँ न बुझाते हुए घास-पत्तों की कलात्मक प्रस्तुतियों पर आते हैं। आवश्यकता आविष्कार को जन्म देती है; पत्तों के विभिन्न प्रयोग यही चरितार्थ करते हैं। बडे आकार अथवा विशिष्ठ आकार के पत्ते आदिवासियों की प्रमुख उपादेयता होते हैं और इसमें सियाड़ी के पत्तों की मुख्य भूमिका मानी जा सकती है। बस्तर में जिन पत्तों को उपयोगी माना जाता है उनमे सियाड़ी के अलावा सरगी, फरसा (पलाश), तेदू, आम इत्यादि प्रमुख हैं। इन्ही पत्तों की बदौलत बस्तर में यह कहानी गर्व से सुनाई जाती है कि प्रकृति ने आदिवासी को इतनी समृद्धि दी है कि वह नित्य नये बर्तन में खाता है; सही भी है, पत्तल और दोने ही आदिवासियों का थाली-ग्लास-कटोरा हैं। बांस की सींक इन पत्तों को जोडने का माध्यम बनती है और फिर सियाड़ी, सरगी या फरसा के पत्ते इस तरह गूंथ दिये जाते हैं कि वे पत्तल और दोनों का आकार ले लेते हैं।  

बस्तर में सरगी, पलाश, सियाड़ी, आम और तेन्दू के पत्ते विशेष उपयोगी प्रमाणित होते आ रहे हैं। तेन्दू पत्तों ने व्यवसाय और मजदूरी को अधिक प्रभावित किया है। सरगी, सियाड़ी और फरसा (पलाश) के पत्ते ग्रामीण जीवन में सर्वोपरि माने जाते रहे हैं इनसे पत्तल और दोने बनाये जाते हैं, इन्हें बांस की सींकों से सीते हैं। पत्तलों और दोनों के लिये फरसा और महुआ पत्तों का उपयोग कभी कभार ही होता है, अधिकतम सरगी और सियाड़ी के पत्तों से ही दोने साकार होते आ रहे हैं। सरगी की तुलना में सियाड़ी के पत्तों की उपयोगिता अधिक व्याप्त है। सियाड़ी के पत्ते बहुआयामी सृजन को आधार देते रहे हैं। इसी तरह तेन्दू पत्ता बीडी व्यवसाय के लिये कच्चा माल है और इसीलिये लम्बे समय से बस्तर में यह राजनीति के केन्द्र मे भी रहा है। माओवादियों ने बस्तर मे पैर जमाने के लिये जिस मुद्दे को अपनी घुसपैठ के आरंभिक दिनो में उठाया था वह तेन्दूपत्ता के संग्रहण और उसके मूल्य पर नियंत्रण के लिये ही था, वर्तमान में तेन्दूपत्ता संकलन और विक्रय पर सरकारी नीति उपलब्ध है।

आप दोना-पत्तल को बहुत सहजता से नहीं ले सकते। उपयोगिता के अनुसार दोनों और पत्तलों के कई आकार-प्रकार उपलब्ध हैं। भात रखने के लिये बडे आकार का दोना चाहिये जिसे डोबला या खोलडा भी कहा जाता है; सरगी अथवा सियाड़ी के बीस-पच्चीस पत्ते लगते हैं एक खोलडा बनाने के लिये जो अंतत: बांस की सीकियों से गुथ कर एक बडे पात्र का आकार ले लेता है। अगला प्रकार है मूंडी दोने; संरचना में इन मूंडी दोनों में बायें-दायें कुल चार मोड आते हैं और देखने पर किसी डोंगी या नाव की अनुभूति होती है। छोटे आकार की मूंडी को आमतौर पर पेज पीने में खूब प्रयोग में लाया जाता है; पेज पीने के उद्देश्य से ही दोनो का एक अन्य प्रकार है पुतकी जबकि चौकोनी तो नाम से ही स्पष्ट है कि इन प्रकार के दोनों में चार कोने होते हैं। शराब पीने के लिये जिन दोनों का इस्तेमाल होता है उन्हें चिपडी कहा जाता है; देखने में चिपडी भी एक नाव की तरह ही होती है। यदि पत्तल की बात की जाये तो मूल रूप से इसे गोलाकार दिया जाता है जिसके लिये दस बारह सरगी अथवा सियाड़ी के पत्तों को करीने से बिछा कर बांस की सींक से सिला जाता है। केवल उपयोगिता ही नहीं अपितु दोना-पत्तल आदिवासी प्रथाओं का भी हिस्सा हैं। पतरी उलटना वस्तुत: एसी ही प्रथा है जिसमे कि हलबा जनजाति के वर-वधु को पत्तल उलट कर उस पर बिठाया जाता है। पनारा जाति के लोग छींद के कोमल पत्तों का कलात्मक उपयोग दूल्हे और दुल्हन के विवाह-मौड बनाने के लिये इस्तेमाल करते हैं। वैसे ‘दोनों’ की रोचक उपादेयता जाननी हो तो कभी लाल-चींटी को एकत्रित करने की विधि को ध्यान देखिये जिसकी की चटनी बस्तर में खूब प्रचलित है। हाट-मडई में कतारों से सजे वनोत्पादों को थामने वाले दोना-पत्तल आज भी एक आम दृश्य हैं।            

कई दैनिक उपयोग के उत्पादों में पत्तों का स्वाभाविक रूप से उपयोग होता है उदाहरण के लिये धूप और छाया से बचने के लिये सिर पर पहनी जाने वाली छतूडी यद्यपि बाँस से बनायी जाती है किंतु इसमे छिद्र भरने का कार्य मुख्य रूप से सियाड़ी के पत्ते करते हैं। इन दिनो ‘सनहा’ का प्रयोग देखने में नहीं मिलता जबकि सियाड़ी के पत्तों से निर्मित एक समय यह प्रचलित रेनकोट हुआ करता था। बरसात में एक आदिवासी के सिर से पाँव तक का आवरण होता था सनहा और छतूडी। चिपटा भी अब चलन से बाहर हो गया है; सियाड़ी के पत्तों और सियाड़ी की ही रस्सी से चिपटा बनाया जाता था जिसने भीतर विभिन्न खाद्य उत्पाद खास कर अरहर, मूंग, उडद, सरसो आदि सुरक्षित रखे जाते थे। बाजार के आदिवासी घरों के भीतर तक पैठ होने के बाद ये प्राकृतिक पहनावे तथा संग्राहक अब चलन से दूर हो गये हैं। 

चर्चा पत्तों पर है तो घांस की लोकजीवन मे उपादेयता और उसकी कलात्मकता पर चर्चा के बिना बात अधूरी रह जायेगी। दक्षिण बस्तर विशेषकर भैरमगढ, भोपालपट्टनम, बीजापुर आदि क्षेत्रों में बोथा घास बहुतायत में पायी जाती हैं इस घास से चटाई अथवा मसनी तैयार की जाती है जो अपनी मजबूती के लिये जानी जाती हैं। चटाई के अलावा ऊसरी जैसी घास या कि धान के पुआल से रस्सी बनाने का काम भी आदिवासी समाज का कुटीर उद्योग है। पुआल से बनाई गयी रस्सी को बेठ कहते हैं। इस बेठ का कलात्मक उपयोग देखिये कि इसे ही गोल गोल घुमा कर धान आदि के संग्रहण के लिये कोठा तैयार कर लिया जाता है जिसे ‘पुटका’ कहा जाता है।

घास-पात की उपादेयता को आदिवासी सामाजिकता में भी खूब देखा-समझा जा सकता है। बस्तरिया जीवन में तम्बाकू देना परस्पर सौहार्द और प्रेम का प्रतीक माना गया है। एक दूसरे का मन जीतने के लिये धुंगिया दिया जाना आम बात है किसके लिये प्राय: पत्ते की चोंगी बनाई जाती है जिसके भीतर तम्बाकू भरा जाता है। ये चोंगी मुख्य रूप से सरगी या तेन्दू के पत्तों की ही बनाई जाती है। समग्र रूप से देखा जाये तो जन्म से ले कर अवसान तक, पर्व से ले कर प्रार्थना तक और दैनिक उपयोग से ले कर बाजार तक घास-पात बस्तरिया जीवन के सहचर हैं।  

 -राजीव रंजन प्रसाद 
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Monday, November 25, 2013

‘समाजशास्त्र के संदर्भ हैं बस्तर के आदिवासी घर’


किसी समाज में कलाप्रियता और जीवंतता का प्राथमिक साक्ष्य उनके मकान हैं, उनके ग्राम हैं तथा जीवन शैली है। बस्तर संभाग में समग्रता से यदि मकानों की अवस्थिति को देखा जाये तो दो मुख्य विभेद सामने आते हैं। वे आदिवासी समूह जो पर्वत श्रंखलाओं और उनके शिखरों को अपना आवास चुनते हैं और दूसरे वे जो मैदानी इलाकों का चयन करते हैं। केवल माडिया जनजाति के ही दो मुख्य प्रकार देखें तो उपरोक्त आधार पर अबूझमाडिय़ा पर्वतों पर बसाहट वाली जनजातियों को कहा गया जबकि दण्डामि माडिया मैदानी आदिवासी मैदानी क्षेत्रों में बसे। यह स्पष्ट कर दूं कि परिचयात्मक विभेद किताबी हैं और केवल वस्तुस्थिति को समझाने के लिये है; वे आदिवासी स्वयं को कोयतूर या कोया कहना पसंद करते हैं जिन्हें मानव विज्ञान की पुस्तकें माड़िया निरूपित करती हैं। बस्तर में जनजातिगत विविधता चाहे जितनी हो किंतु बहुत हद तक रहन-सहन तथा मकान निर्माण की शैली में साम्यता दृष्टिगोचर होगी है। संभव है कि दक्षिण बस्तर में जिस मकान की छत पर ताड के पत्ते और पुआल थे वही मध्य और उत्तर बस्तर तक आते आते खपरैल और चूना पत्थर की फर्सियों से ढके नजर आयें किंतु मकान के आकार प्रकार, उनकी साज सज्जा, अहाते और पशु-पक्षियों के लिये नियत स्थानों आदि में सर्वत्र साम्यता ही प्राप्त होगी। अधिकतम गाँव पेडों के कुंज अथवा झुरमुटों के बीच बसे होते हैं जो आदिवासी जीवन की प्रकृतिप्रियता और शांतिप्रियता का परिचायक है। मुरिया आदिवासी सामान्य तौर पर अपनी बसाहट के लिये पहाडियों की चोटियों का चयन नहीं करते जबकि पर्वतीय-माडिया की स्वाभाविक पसंद होते हैं ये स्थल। मै यह मानता हूँ कि एसी अनेकता बस्तर में केवल सैद्धांतिक रूप से विद्यमान है जबकि एकरूपिता कांकेर से कोण्टा तक सर्वत्र देखी जा सकती है केवल दृष्टि को सही कोण चाहिये।   

बस्तर के पर्वतीय स्थानों पर निवास करने वाले आदिवासी सघन बसाहटों मे रहते नहीं पाये जाते। इसका कारण इतिहास से जुडा भी हो सकता है जो यह बताता है कि राजा भैरमदेव (1853-1891) के समय तक बस्तर रियासत में स्थाई गाँवों की संख्या बहुत कम थी। तत्कालीन दीवान दलगंजन सिंह ने कुछ प्रथाओं का सख्ती से अंत कराया जिनमे से एक थी कि यदि किसी की मृत्यु हो जाती है तो ग्रामीण अपनी बस्ती को उजाड कर नये सिरे से नये स्थान पर बस जाते थे। आज भी बडी बडी बसाहटों को देखना मुमकिन नहीं। पर्वतीय क्षेत्रों में आदिवासी पंद्रह-बीस मकानों के झुंड में बसे दिखाई पडते हैं। कई नितांत अकेली झोपडियाँ घाटी की ओर अथवा तलहटी में दिखाई पड सकती हैं, जो उसमे निवास कर रहे आदिवासी बंधु के निर्भय स्वभाव का परिचायक है। पर्वतीय स्थानों के मकान किसी टीले को चुन कर उनपर निर्मित किये जाते हैं। मकान क्रमिकता में पाये जाते हैं अर्थात लम्बाई में क्रमश: दो से तीन मकान एक साथ। मकान की निर्मिति में और रहन सहन में स्थानीय मान्यताओं की क्षेत्रवार झलख देखने को मिलती है; उदाहरण के लिये अबूझमाड़िया अपने मकान को लीपते नहीं हैं। ये लोग आज भी एक स्थान पर दो या तीन वर्ष की अवधि से अधिक नहीं टिकते। घर के भीतर की व्यवस्था में भी देवी देवताओं की रोकटोक है तथा स्त्री-पुरुष घर में एक स्थान पर नहीं सोते; इनका विश्वास है कि एसा करने पर देवता घर से बाहर चले जायेंगे। अबूझमाड के भीतर आज परम्पराओं और मान्यताओं की क्या स्थिति है व जीवन शैली में कैसे परिवर्तन आये हैं यह अलग अध्ययन का विषय है। माओवादियों ने सामाजिक अवस्थाओं को कितनी गहरी चोट पहुँचाई है इसकी विवेचना तो अब आने वाले समय के हाथ में ही है।  

आदिवासी घर आमतौर पर बांस की लकडी से निर्मित और बांस की छत वाले होते हैं। बांसों और लकड़ियों को आपस में मिट्टी से जोडा जाता है। आवश्यकतानुसार कमरों की संख्या निर्धारित की जाती है साथ ही बरामदा निवास की आवश्यक शर्त होता है। आदिवासी मकानों में मुख्य द्वार तो एक ही होता है किंतु पूरे घर में दो से अधिक दरवाज़ों की अवस्थिति सामान्य तौर पर मिलेगी। प्राय: घर एक कतार में बनाये जाते हैं जो गली में खुलते हैं। रिश्तेदारों के घर आसपास निर्मित किये जाते हैं जो आमतौर पर तीन-चार की संख्या में होते हैं और एक चौक मे खुलते हैं। आदिवासी जीवन में परिवार का हिस्सा उनके परिजनों के साथ साथ पशु-पक्षी भी होते है। यही कारण है कि आपको मकान के भीतर ही घूमते सूअर कुता, मुर्गी आदि तो नज़र आयेंगे ही इनके योग्य आवास अथवा बाडे भी मकान का ही हिस्सा होते हैं। सूअरों के रहने के बाडे आमतौर पर देखे जा सकते हैं, कभी कभी इन्हें दोहरी छत दे कर बनाया जाता है। अंडे से रही मुर्गियों को आरामदेय घोंसले दिये जाते हैं जो जमीन से ऊँचे स्थान पर बनाये जाते हैं। घरों के कुछ भाग का उपयोग आवास के लिये तो कुछ का अनाज भण्डारण के लिये होता है। बसाहट का एक प्रकार है लाडी जो एक प्रकार की झोपडी होती है। लाडी को खेतों के पास बनाया जाता है तथा वहीं अनाज की कटाई के पश्चात मिंजाई की जाती है। अनाज को प्राय: लाडी में ही रख दिया जाता है अत: इसे बनाने के लिये एसे स्थानों का चयन होता है जो आड में हो। 

आदिवासी घर नितांत आरामदेय होते हैं। आमतौर पर हर घर में भांति भांति की टोकरियाँ, चटाईयाँ, पत्तों के बंडल तथा मिट्टी और धातु के बर्तन नज़र आयेंगे। शराब और लांदा बनाने का उपक्रम भी हर आदिवासी घर के अहाते में मौजूद होता है। घर में मछली पकडने के जाल, ढोल आदि छत से लटकते नजर आ सकते हैं। बाँसुरियाँ, धनुष और वाण घर के छत की घास में अंदर की तरफ घुसा कर रखे जाते हैं। आदिवासियों के इन घरों का रसोई वाला कोना बहुत साधारण होता है। किसी कोने में अर्धचन्द्राकार स्थान को चुन कर रसोई बना लिया जाता है। मिट्टी के बर्तनों के अलावा घडे आदि भी रसोई मे रखे दिखाई पड जायेंगे। लकडी की चम्मच साथ ही बडे गोलाकार चमचे जिनसे रसदार भोजपदार्थ निकाला और परोसा जा सके इन रसोईयों में किसी कोने में पडा मिल जायेगा। अल्यूमीनियम की देगची और दूसरे बर्तनों को भी मैने अनेक रसोईयों में देखा है।   

स्थान स्थान पर जैसे परम्परायें बदलती हैं, बोलियाँ बदलती हैं वैसे ही घरों के नीयम भी बदले पाये जा सकते हैं। अनेक आदिवासी घरों में एक गहन कक्ष में मृतक स्मृति संजोये हुए एक रहस्यमयी घडा रखा जाता है। यह प्रतीक है कि घर में परिवार के पूर्वजों का स्मरण बनाये रखा गया है एवं इस तरह उनके प्रति सम्मान प्रकट किया जाता है। कुछ आदिवासी समाजो में स्त्रियों के मासिकधर्म को ले कर भी भ्रांतियाँ हैं जो सीधे ही निवास व्यवस्था में परिलक्षित होती है। कुछ परम्परागत आदिवासी गाँवों में औरतों के लिये अलग झोपड़ी बना दी जाती है जिसका प्रयोग मे मासिकधर्म के दौरान करती हैं। एसी झोपडियों को गाँव के भीतर ही किंतु निर्जन स्थान पर बनाया जाता है। यह झोपडी और इसके दरवाजे छोटे होते हैं; अंदर एक बिस्तर, खाना बनाने की जगह, कुछ घड़े, कुछ कपड़े और आग जलाने की लकडियाँ रखी होती हैं। बातचीत में मुझे जानकारी मिली कि ये अब विलुप्त होती हुई प्रथायें हैं और पुरानी पीढी भी अब इन बातों को नहीं मानती। पहले थानागुडी किसी ग्रामीण व्यवस्था का अनिवार्य हिस्सा हुआ करती थी जिसमे कि बाहर से आने वाले अतिथियों को ठहराया जाता था एवं उनकी सेवा-सुश्रुषा के लिये किसी ग्रामीण को नियत किया जाता था जिसे अठपहरिया कहते थे। अब थानागुडियाँ भी अतीत का हिस्सा हो गयी हैं। यदि आप विभिन्न गावों के नक्शों का निर्माण करें और उसमे प्रभावशाली व्यक्तियों के आवास खोजने की कोशिश करें तो आपको निराशा हाथ लगेगी। बस्तर के आदिवासी गाँवों में स्वाभाविक रूप से साम्य अवस्था विद्यमान है तथा आवास व्यवस्था में वर्चस्व की भावना का नितांत अभाव दिखाई पड़ेगा। गायता, पटेल, पुजारी आदि के निवास भी आपको समान बसाहट में सम्मिलित मिलेंगे। यहाँ भी बदलाव के कुछ दृश्य नजर आने लगे हैं; प्रभावशाली आदिवासी परिवारों अथवा राजनैतिक परिवारों ने स्वयं को एक सीढी उपर चढा कर अपने ही बंधु-बांधवों से काट लिया है।  

हर घर के चारो ओर एक चारदीवारी निर्मित की जाती है। चारदीवारी का कि निर्माण निजी अथवा सामुदायिक बागीचे की परिधि में भी होता है। चारदीवारी अथवा परिधि निर्माण बस्तर के घरों की विशेषता है। बाडी बनाना तो आधुनिक समयों में अधिक होने लगा है किंतु मेढे पाषाणकाल से ही बस्तर के आसिवासी जीवन की विशेषता रहे हैं। मेढ़ा - लकड़ी या बांस का वह सीधा गाड़ा गया खूंटा होता है जो किसी बाडी की बुनावट को आधार देता है। जितनी लम्बी बाडी लगानी है उतने ही अधिक मेढे। समान आकार और गोलाई के तनों को सीधे और एक के बाद एक गाड कर किसी मकान की परिधि बनाई जाती है। लकडी के स्थान पर लम्बे आकार के पत्थर खास तौर पर चूना पत्थर की फर्सियाँ भी इस काम में प्रयुक्त की जाती हैं। चूना पत्थर की अलग अलग परतों को उखाड़ कर बराबर आकार प्रकार में बना लिया जाता है फिर परिधि में एक के पश्चात एक सीधा गाडा जाता है। ये मेढे न केवल किसी मकान, बागीचे अथवा खेत की सीमा निर्धारित करते हैं अपितु इनका लोक-ज्योतिष मे भी अपना ही महत्व है। मेढ़ा गन्तेया यानी कि मेढ़ा गिनने वाला ज्योतिषी; किसी घर की परिधि में लगाई गयी इनकी संख्या से ही वह विचित्र गणनायें कर लेता है और किसी ग्रामीण की समस्याओं का हल बता सकता है। मध्यबस्तर में जहाँ कि चूने पत्थर की अधिकता है वहाँ मकान के निर्माण तथा चौखटों में भी सीधी और लम्बी लम्बी फर्सियों का प्रयोग होता है। पत्थरों के छोटे छोटे टुकडों को एक के उपर एक चढा कर मिट्टी के माध्यम से जोड कर घर की दीवारें तैयार कर ली जाती हैं। 

बस्तरिया आदिवासी घर करीने से बने और साफसुथरे होते है। फर्श और दीवारों को रंग-बिरंगी मिट्टी अथवा गोबर से लीपना आम है किंतु पहली दृष्टि में बहुत अधिक कलात्मक सजावट इन मकानो में दिखाई नहीं पडेगी। मुझे उन दीवारों पर ही भित्तिचित्र नजर आये जिनमें कोई पर्व अथवा उत्सव मनाया जा रहा था। प्राय: घर की चौखट भी सामान्य ही होती है और लकडी से अथवा बाँस गूथ कर बनाये गये दरवाजों को ले कर भी एक प्रकार की उदासीनता है। आदिवासी जीवन अपने घोटुलों को जितना सजीव और कलात्मक बनाता है उनता ही साधारण और सादगी से भरा वह अपने निवास को रखता है। इसका अर्थ यह नहीं कि ये दर्शनीय नहीं हैं, बस्तर में मकान बनाये जाने के तरीके, परिधियाँ निर्माण की विशेषतायें और यहाँ के सामाजिक सहसम्बन्ध किसी भी समाजशास्त्री के लिये आदर्श विषय हो सकते हैं। 

-राजीव रंजन प्रसाद
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Friday, November 22, 2013

तहलका युग के मुखौटे


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यह तहलका युग है; यहाँ धमाकों पर चर्चा अवश्यम्भावी है। इस देश ने तालियाँ बजा कर उन खुफिया कैमरों की तारीफ की जिसने पैसे लेते हुए बंगारू लक्ष्मण को कैद किया और उनका राजनैतिक जीवन हमेशा के लिये समाप्त कर दिया, जिसने क्रिकेट के चेहरे से नकाब उतारी जिसके बाद जडेजा तथा अजहरूद्दीन का खेल भविष्य हमेशा के लिये समाप्त हो गया, जिसने जेसिकालाल हत्याकाण्ड के एक चश्मदीद गवाह श्यान मुंशी के हिन्दी ज्ञान का पिटारा सार्वजनिक किया और सिनेमा में भविष्य देखने वाले इस राह भटके युवक को फिर माया मिली न राम, एक असफल कोशिश और भी थी जिसमे गुजरात दंगों में सरकारी मशीनरी की भूमिका साबित करने का प्रयास था। अब समय है कि इन कैमरों के पीछे छिपे चेहरे तरुण तेजपाल पर भी उतनी ही गंभीरता से बात हो। खुफिया कैमरों से तहलका मचाने वाले इस व्यक्ति से उसके अब तक हासिल उपलब्धियों पर कोई सवाल उठाने का मेरा इरादा नहीं हैं अपितु यहाँ बात उस व्यक्तित्व की है जो अनेकों युवाओं का आदर्श माना जाता था और खोजी पत्रकारिता के सूत्रधारों मे गिना जाता है। तरुण तेजपाल एक एसे आरोप से घिरे हैं जिसे सभ्य समाज में अक्षम्य माना जाता है। आरोप संभवत: गलत शब्द प्रयोग है क्योंकि जब तरुण स्वीकार कर रहे हैं कि उन्होंने वह सब किया है जिसके लिये हर तरफ छि: छि:-थू थू हो रही है तो खांटी पत्रकार और शब्दों के बीच में घुस कर अर्थ निकालने की अपनी महारत से वे यह बखूबी समझते होंगे कि जो कुछ उन्होंने किया है वह अपराध है। यह उतना ही जघन्य अपराध है जितना कि बंगारू लक्ष्मण का था, जडेजा-अजहरुद्दीन का था या कि श्यान मुंशी का था और इन सभी ने जो परिणाम भुगते हैं वही तरुण तेजपाल की भी नियति होनी चाहिये।   

हाल के दिनों मे बलात्कार और यौन शोषण की घटनाओं ने पूरे देश को दहलाया है। यह भी सही है कि अधिकतम एसे मामलों में दबंग शामिल होते हैं। दबंग से मेरा अर्थ है रसूखदार लोग जो जानते हैं कि उनका कोई कुछ नहीं उखाड़ सकता। वे धनबल से युक्त हैं लेकिन जो जनबल से युक्त हैं वे भी भयावह बाहूबलि हैं, बस चेहरे पर सफेदपोशियत और कॉलर सफेद होने के कारण ये पहचाने नहीं जाते। ये लोग जानते हैं कि के.पी.एस गिल की चुटकी काटने की घटना को कौन याद रखता है? ये जानते हैं कि सवाल ज्योति कुमारी से ही पूछे जायेंगे लेकिन राजेन्द्र यादव के मौन पर कभी चर्चा नहीं होगी। ये जानते हैं आरोप दबावों के आगे जिन्दा नहीं रहते और उनके चेहरों पर लगे दाग तहलका और सनसनी सुनने वाले इस देश में चार दिन भी नहीं टिकेंगे; छ: महीने की मोहलत तो सोच समझ कर ही तरुण तेजपाल ने खुद को दी है। इन छ: महीनों में किसे याद रहेगा कि दुनिया बदलने का सपना दिखाने वाले चेहरे की दो आँखे वस्तुत: किसी स्त्री को किन निगाहों से देखना चाहती हैं?   

इस घटना के कई पहलू हैं। एक पक्ष है तरुण तेजपाल का वह ईमेल जो तहलका की प्रबन्ध सम्पादक शोमा चौधरी को उनके द्वारा भेजा गया। इस इमेल की प्रत्येक पंक्ति दंभ और संवेदनहीनता से भरी हुई है। तरुण लिखते हैं कि “पिछले कुछ दिन बहुत परीक्षा वाले रहे और मैं पूरी तरह इसकी जिम्मेदारी लेता हूँ। एक गलत तरह से लिए फैसले, परिस्थिति को खराब तरह से लेने के चलते एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना हुई जो उन सभी चीजों के खिलाफ है जिनमें हम विश्वास करते हैं और जिनके लिए संघर्ष करते हैं। मैंने संबंधित पत्रकार से अपने दुर्व्यरवहार के लिए पहले ही बिना शर्त माफी मांग ली है, लेकिन मैं महसूस कर रहा हूं कि और प्रायश्चित की जरूरत है”। इस सादगी पर कौन न मर जाये ए खुदा!! किस बात की परीक्षा? कैसा संघर्ष? कैसा विश्वास? किसी महिला को अपमानित करने के बाद कैसे आरोपो से बचा जाये क्या इस मनोदशा की बात कर रहे हैं तेजपाल? यह जिम्मेदारी लेना क्या होता है? किस साफगोई से अपनी लिजलिजी हरकत को सहलाते हुए “गलत तरीके से लिये गये फैसले”, “परिस्थिति को खराब तरीके से लेने”, “दुर्भाग्यपूर्ण घटना” जैसे शब्द मरहम उन्होंने खुद पर ही पोतने की कोशिश की है। तेजपाल ने अपने पत्र में आगे लिखा है “क्योंकि इसमें तहलका का नाम जुड़ा है और एक उत्कृष्ट परंपरा की बात है, इसलिए मैं महसूस करता हूं कि केवल शब्दों से प्रायश्चित नहीं होगा। मुझे ऐसा प्रायश्चित करना चाहिए जो मुझे सबक दे। इसलिए मैं तहलका के संपादक पद से और तहलका के दफ्तर से अगले छह महीने के लिए खुद को दूर करने की पेशकश कर रहा हूं”। किस उत्कृष्ट परम्परा की बात कर रहे हैं तेजपाल? तहलका की उस परम्परा की जहाँ कार्यस्थल पर यौन उत्पीडन के मामलों की जाँच के लिये कोई समीति बनाई ही नहीं गयी? छोटे छोटे कार्यालयों में भी किसी महिला सदस्य की अध्यक्षता में गठित एसी समीतिया कार्य करती हैं। यहाँ तो ठसक है कि लो जी अपराध कर लिया, अब हम प्रायश्चित करेंगे इसलिये अपनी सजा खुद मुकर्रर करते हैं, इतना कुछ तो कर लिया अब क्या जान लीजियेगा इस इन्नोसेंट की? कल आशाराम बयान जारी कर दें कि हमसे भूल हो गयी अब दो साल कोई प्रवचन नहीं तो मान्यवर को फूल माला पहना कर घर छोड आना चाहिये? यह तर्क तो वही है जो तरुण तेजपाल का है? क्या एक लेखक और पत्रकार होने के कारण उनकी जिम्मेदारी उस आचरण को आत्मसात करने की नहीं है जैसी दुनिया बनाने का दावा उनके आलेख और पत्रिका करती है? 

लेखक राजेन्द्र यादव की अंत्येष्टि क्रिया पर आलोचनात्मक बयान क्यों आये? यह इसलिये आये थे कि आजीवन राजेन्द्र यादव ने कर्मकाण्डों के विरोध में अपनी पक्षधरता दर्शायी थी। जब उनके ही परिजनों ने परलोक सुधारने की कवायद में राम नाम सत्य किया तो विरोधाभास पर प्रश्नचिन्ह लगने ही थे। तरुण तेजपाल भी नहीं बच सकते, उन्हें बचाया जाना नहीं चाहिये जैसा कि उनकी संस्था तहलका और उसकी प्रबन्ध सम्पादक शोमा चौधरी के द्वारा किया जा रहा है। एक महिला होने तथा एक एसी पत्रिका से जुडने के बाद जिसका दायित्व ही सच के साथ खड़े होने का है, खुद शोमा इस बात की चिंता अधिक करती नजर आती हैं कि ईमेल किसने लीक की है या पीडिता को कैसे मैनेज किया जाये? कोई ठोस बयान या आश्वासन सामने नहीं आने का कारण यही है कि उनके भीतर की स्त्री के उपर उनका प्रबन्धक होना हावी है, वे तहलका की चमक दमक और बने बनाये बाजार को अपनी पीठ से टिकाये रखना चाहती हैं; इसके लिये दरकी हुई दीवारों पर लीपापोती आवश्यक है। 

कितना कोमल ताना बाना है इस घटना का। पीड़िता तेजपाल के मित्र की बेटी हैं यह भी एक एसा सम्बन्ध है जिसमे स्वाभाविक विश्वास और संरक्षण की भावना अंतर्निहित है। पीडिता तरुण तेजपाल की बेटी की दोस्त हैं इस लिहाज से यह सम्बन्ध की और भी नाजुक कड़ी है। इस स्थल पर ठहर कर आप दोषी पत्रकार की मानसिकता से पहले पीडिता के ईमेल की इन पंक्तियों पर गौर कीजिये जिसमे वह लिखती हैं कि “जब दूसरी बार यौन उत्पीड़न के बाद मैंने तरुण तेजपाल की बेटी को इस बारे में बताया, तो तरुण मुझ पर चीखने लगे और धमकाने लगे”। इस बात से यह अर्थ न निकाल लीजिये कि माफीनामा या प्रायश्चित कोई हृदयपरिवर्तन है अपितु लीपापोती की कोशिश ही है। अपने शिकायती मेल में महिला पत्रकार ने ही तरुण से लिखित में माफी मांगने के साथ साथ यह मांग भी की कि पूरे तहलका संगठन को इसके बारे में बताया जाए। तरुण को शायद गोलमोल और दंभ भरे शब्दों में प्रायश्चित की बात करते हुए छ: महीने तक मुह छिपाना अपने बचाव का बेहतर विकल्प लगा होगा। 

तहलका तो मचता रहता है। क्या हुआ तो तमाम घोटाले होते हैं, फाईलें गुमाने का विकल्प जो जिन्दा रहता है? क्या हुआ जो जन-लोकपाल बिल पास नहीं हुआ आम आदमी पार्टी जैसा राजनैतिक दल तो बना जिसके नेता वैसे ही स्टिंग ऑपरेशन में गोलमाल करते नजर आ रहे हैं जैसी तहलका के तेजपाल करने में वन एण्ड ओनली हैं? क्या हुआ जो पीडित लडकी शिकायत नहीं कर रही वैसे भी इस देश में बलात्कार की एफआईआर ही कितनी हो पाती है? क्या हुआ जो शोमा चौधरी गोलमोल जवाब दे रही हैं क्योंकि दुनिया गोल है और हमाम मे भीतर गजब का साम्यवाद है; वह फिर नेता हो, अभिनेता हो, अफसर हो या कि पत्रकार? क्या हुआ कि तेजपाल की बेटी ने आलोचनाओं से व्यथित हो कर अपना ट्विटर एकाउंट ही बंद कर दिया क्योंकि समाज तो पुरुषवादी ही है जिसके केन्द्र में पिता विराजमान होता है? क्या हुआ कि कथित प्रगतिशील और जिन्दाबाद-मुर्दाबाद वाले लेखक मौन हैं आखिर वे जानते हैं कि उनके पास हमेशा दो मापदण्डों का विकल्प मौजूद होता है? तरुण का अगला छ: महीना भले ही छुट्टियों में बीत जाये लेकिन वे लौटेंगे नयी उर्जा, नये तेवर, नये कलेवर और नये बहानों के साथ क्योकि आप दुनिया बदलना चाहते हैं; तहलका युग के मुखौटों से कभी मुक्ति नहीं....। 

-राजीव रंजन प्रसाद 

Saturday, November 16, 2013

बस्तर में लोकतंत्र अभी सांसे ले रहा है


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बस्तर में विधानसभा चुनावों के सम्पन्न होते ही गहरी गहरी स्वांसों के स्वर सुनाई पड़ने लगे हैं। सुरक्षाबलों के अपना एक सिपाही श्री पी. डी. जोसेफ़ को खोया तो कुछ ग्रामीण भी घायल हुए किंतु यह सब वर्ष 2008 में इस क्षेत्र में हुए मतदान के समय हुई नक्सली हिंसा जिसमे बयालिस से अधिक शहादत दर्ज हुई थी, उसके समकक्ष राहत भरी खबर बन कर आया है। क्षेत्र में चुनाव विश्लेषणों का समय अब उबर गया है तथा नारे और झंडे अब उत्तरी छत्तीसगढ की ओर केन्द्रित होने लगे हैं। अब गहरी खामोशी है, सुरक्षा बलों के मतदान केन्द्रों के छोडते ही कुछ खम्बे नोचे गये और दिन भर कई बम विस्फोट तो कई विस्फोटक बरामद होने की खबरें आती रहीं। इस बीच बस्तर के भीतर बैलेट और बुलेट की जय पराजय पर चर्चायें होने लगी हैं। यह चर्चा न केवल बस्तर अपितु दिल्ली से भी जारी है चूंकि विचारधारा की युद्धभूमि होने के कारण व्यापक दृष्टि से यहाँ हुए चुनावों के प्रत्येक कदम की विवेचना हुई और यह जानने की कोशिश की जाती रही कि क्या वास्तव में बैलेट से बुलेट पराजित हुआ है?

इस दृष्टिकोण को समझने से पहले इस बार चुनावों में चुनाव आयोग की भूमिका की सराहना करनी आवश्यक है। भारी मात्रा में सुरक्षाबल की तैनाती और सभी प्राप्त जानकारियों के अनुरूप समुचित निर्णय ले कर इन चुनावों को त्रासदी बनने से रोक दिया गया। यदि एसा न हुआ होता तो आज हम रक्तपात के अनुपात पर विमर्श कर रहे होते, मृतक अवशेषों पर मेनहीर गड़ रहे होते और यह मान लिया जाता कि समानांतर सरकार चलाने का दावा वास्तव में एक सच्चाई है। एसा नहीं था कि प्रयास नहीं हुए अथवा जंगल के भीतर से लोकतंत्र के इन महापर्व को धमाके सुनाये जाने की तैयारी नहीं थी। बीजापुर के अनेक क्षेत्रों से रह रह कर नक्सली फायरिंग तथा सुरक्षा बलों द्वारा उत्तर दिये जाने की सूचनायें आती रहीं, करकेली में जहाँ गोली चला कर नक्सली भाग निकले तो मंकेली बूथ पर उन्होने गोली चालन किया। बीजापुर चुनावी परिक्षेत्र के आवांपल्ली में दस किलोग्राम का एक शक्तिशाली बम भी बरामद किया गया था। दंतेवाड़ा में इससे भी भयावह तैयारियाँ थीं तथा पैंतीस और चालीस किलोग्राम के दो बम यहाँ भी बरामद हुए जबकि धानीरका बूथ के पास से दो टिफिन बम भी मौके पर नष्ट किये गये। यही नहीं बरसोल क्षेत्र में छ: आईडी बमो की बरामदगी हुई तो स्थान स्थान पर पोलिंग पार्टी पर नक्सली हमला होने की खबरे पूरे दिन आम थीं। कोण्टा विधानसभा क्षेत्र में हालात इतने खराब थे कि सुकमा के मुरतुण्डा बूथ पर जा रही पोलिंग पार्टी को ही वापस बुला लिया गया। कमोमेश यह स्थिति बस्तर में सभी सीटों पर देखी गयी थी। ओरछा मे दो बम जिन्दा बम मिले, नारायणपुर के आकाबेडा में पच्चीस किलोग्राम का बम बरामद हुआ था तो दरभा के कोलांग मतदान केन्द्र पर गोलीबारी हुई थी। कांकेर की भी यही स्थिति थी जहाँ दुर्गापल्ली के पास एक बम मिला तो पखाञुर मे शक्तिशाली बम विस्फोट के कारण बीएसएफ का एक जवान घायल हो गया, जिसे एयर-एम्बुलेंस से तत्काल ही अस्पताल पहुँचाया गया। ये सभी घटनायें सिद्ध करती हैं कि आतंकवाद ने अपनी ओर से तैयारियों में कोई कमी नही रखी थी। बस्तर समेत जिन अठारह सीटों के लिये छत्तीसगढ में मतदान हुआ वहाँ संवेदनशील मतदान केन्द्रों की संख्या 1517 थी जबकि लगभग इतनी ही अर्थात 1311 संख्या अतिसंवेदनशील मतदान केन्द्रों की थी। इन परिस्थितियों ने लोहा लेना कोई आसान कार्य नहीं था और इसे संभव कर दिखाने में लगी सभी संस्थाओं की सराहना इस लिये भी होनी चाहिये कि बुलेट को यदि योजनाबद्ध रूप से नहीं रोका जाता तो बैलेट की कभी जीत नहीं हो सकती थी। यहाँ जोडना चाहूंगा कि ये सभी तैयारियाँ केवल सुरक्षाबलों के विरुद्ध नहीं थी अपितु उस आम आम मतदाता पर सीधा हमला करने के लिये भी थीं जो अपने क्षेत्र में पसंद की सरकार चुनने के लिये प्रतिबद्ध हो कर साहस जुटा कर मतदान केन्द्रों तक पहुँचा था।       

भय और साहस के बीच संघर्ष की अनेक लोमहर्षक कथायें इस चुनाव में सामने आयीं। यह भी हुआ है कि दंतेवाड़ा, कोण्टा और बीजापुर के अनेक मतदान केन्द्रों में एक भी मतदाता नहीं पहुँचा जबकि इस बार प्रत्येक बूथ में 70-80 सुरक्षा कर्मी तैनात थे यहाँ तक कि हर बूथ में विभिन्न राज्यों से आयी महिला पुलिस कर्मी और कमाण्डों को भी ड्यूटी पर तैनात किया गया था। किंतु एसा भी हुआ है कि पैरों से लाचार मतदाता दोनों हाथों में जूते ठूसे कंटकाकीर्ण पगडंडियों पर घिसटता हुआ बूथ तक पहुँचा। एसे भी दृश्य है जहाँ चलने से लाचार बूढे की लाठी बन कर कोई बुढिया मतदान केन्द्र तक उसे ले आई थी। मतदाताओं को बूथों तक न पहुँचने देने के लिये नक्सलियों ने अनेक स्थानों पर सड़क काट दी तो कहीं नावों-डोंगियों को डुबो दिया था। ग्रामीण इस परिस्थिति से भी लडे और देखने में आया कि मुचनार के परिवर्तित मतदान केन्द्रों में उन्होंने अपनी व्यवस्था से छोटी डोंगियों से नदी पार की और मतदान किया। कई गाँवों के मतदाता चौबीस से अठाईस किलोमीटर पैदल चल कर वोट डालने पहुँचे जिसे अदम्य साहस संज्ञापित किया जाना चाहिये। बैलेट की जीत यदि हुई है तो इसी साहस के कारण संभव हुई है जहाँ आम आदिवासी ने यह बताया है कि उसकी आस्था तो अपनी व्यवस्था पर अब भी है और यदि यह तथ्य हमारे लोकतंत्र की बुनियादी समझ बन सके तो बस्तर ही बदल जाये।   

इन्ही परिस्थितियों के दृष्टिगत आखिरी समयों में अनेक मतदान केन्द्रों के बदले जाने को ले कर चुनाव आयोग की तीखी आलोचना भी देखी गयी। सुरक्षा कारणों से इसे सही भी माना जाये तो भी यदि आवश्यकता से अधिक दूर मतदान केंन्द्र होंगे, गाँवों से असहज दूरी और दुर्गम रास्तों से हो कर उन्हें वोट डालने के लिये बाध्य होना पडेगा तो निश्चित है कि औसत मतदान में गिरावट देखी जायेगी। नदी के उसपार के मतदाताओं को इसपार आने के लिये अपनी व्यवस्था से अगर नावों और अन्य संसाधनों का सहारा लेना पडा तो इन बदले गये बूथों पर मतदान होने का श्रेय ग्रामीणों के साहस को ही जाता है तथा इसके बदले जाने के विपक्ष में खडे तर्क मान्य प्रतीत होते हैं। इस सभी बातों को देखते हुए यदि छत्तीसगढ राज्य में पिछले दो चुनावों के साथ वर्तमान मतदान के प्रतिशत की एक विवेचना की जाये तो क्षेत्रवार जो चित्र उभरता है वह गहरा विमर्श मांगता है। 

इस बार हुए रिकॉर्ड मतदान के कारण यह माना जा रहा है कि चुनावों के नतीजे विविध होंगे जिसके कारण अटकलों का बाजार गर्म है। जगदलपुर, कांकेर, कोण्डागाँव, केशकाल चित्रकोट, नारायणपुर तथा दंतेवाडा में जहाँ पिछले चुनावों के मुकाबले बढत देखी गयी किंतु 2003 के आंकडों को भी सामने रखा जाये तो इन सभी सीटों में उतार चढाव भरा मतदान होने की परम्परा रही है साथ ही साथ भानुप्रतापपुर तथा नारायणपुर जैसी सीटों में यथास्थितिवाद दृष्टिगोचर हो रहा है। नक्सल प्रभावित दक्षिण बस्तर में दंतेवाडा के आंकडे चौंकाने वाले हैं यहाँ 67% मतदान का होना कई तथ्य को विवेच्य बनाता है। महेन्द्र कर्मा के निधन को एक कारण मान कर यदि हालिया घटनाओं के देखा जाये तो नक्सलियों द्वारा चुनाव बहिष्कार की अपील के पश्चात दंतेवाडा के कमलनार में पंद्रह गावों के प्रतिनिधियों ने बैठक की और वोट डालने का निश्चय किया। इसके पश्चात हुआ भारी मात्रा में मतदान होना वस्तुत: क्या सिद्ध करता है इसके लिये तो चुनाव परिणामों की प्रतीक्षा करनी ही होगी। तथापि कोण्टा और बीजापुर में मतदान का प्रतिशत गिरा है। कोण्टा में 2008 के मुकाबले 12% के लगभग मत प्रतिशत में कमी आना तथा 2003 के स्तर से भी इसका नीचे चला जाना क्या यह इशारा करता है कि यहाँ नक्सली धमकी का खासा असर देखा गया है। बीजापुर सीट में भी रिकॉर्ड गिरावट के साथ केवल 24% मतदान हुआ जबकि यह 2008 में 37% एवं 2003 में 29% रहा है। अंतागढ में भी गिरावट दर्ज की गयी है किंतु 58% मतदान होना संतोषप्रद ही कहा जायेगा।   

 यह इस दिशा की ओर भी इशारा करता है कि दक्षिण बस्तर से केवल वे वोटर ही बाहर निकले हैं जो किसी न किसी पार्टी का निर्धारित वोट बैंक हैं। क्या दक्षिण बस्तर मे कम मतदान का होना कोण्टा और बीजापुर में वाम संभावनाओं को क्षीण करता है यह भी देखना होगा। वाम अतिवाद ने यहाँ वाम दलों की जमीनी लडाईयों को कमजोर ही किया है तथा मनीष कुंजाम जैसे नेता अपनी “फेस वेल्यु” के कारण ही मुख्य पार्टियों को टक्कर दे पाते हैं। 

आंकडे चाहे जो कहते हों किंतु यह कहना होगा कि इस बार सारे चुनावी पंडित मौन हैं तथा यकीनी तौर पर कोई नहीं कह सकता है कि बस्तर की बारह सीटो पर किस राजनीतिक दल का पक्ष बंधा हुआ है। जो भी बातें सामने आ रही हैं वे केवल अनुमान भर हैं। चुनाव आयोग ने बहुत अच्छी तरह से अपना कर्तव्य निर्वहन किया है और एक भयानक खून-खराबा भरा दिन देखने से हम बच गये हैं। आम मतदाताओं ने चुनाव के महति पर्व को अपने साहस के सफल बनाया है तथा भारी मात्रा में बस्तरियों ने लोकतंत्र के प्रति आस्था जताई है। ये चुनाव लाल-आतंकवाद के सूत्रधारों को बैठ कर सोचने के लिये भी बाध्य करेगा कि क्या बाहरी दहशत के भीतर उनकी जमीन पतली तो नहीं होती जा रही? चुनाव आयोग ने व्यवस्था को भी एक मार्ग दिखाया है कि समुचित इच्छाशक्ति के दम पर नक्सलवाद से निर्णायक लडाई लडी जा सकती है। बस्तर में सम्पन्न हुए इस सुनाव का उपसंहार यही है कि बस्तर में लोकतंत्र अभी सांसे ले रहा है।  

-राजीव रंजन प्रसाद
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Saturday, November 09, 2013

बस्तर - जहाँ गिरवी है लोकतंत्र

[बस्तर में विधान सभा चुनाव-2013 पर विशेष आलेख]  

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यहाँ लोकतंत्र गिरवी है। सन्नाटे चुनाव प्रचार कर रहे हैं और दहशत ही प्रत्याशी है। कहने को तो सभी राजनीतिक दलों ने अपने अपने उम्मीदवार उतारे हैं जिनके भाग्य का फैसला अंतत: यह तय करेगा कि राज्य में ऊँट किस करवट बैठने वाला है। इसमे कोई संदेह नहीं कि छत्तीसगढ राज्य बनने के पश्चात हुए पिछले दो चुनावों में बस्तर की लगभग सभी सीटों पर कॉग्रेस तथा भारतीय जनता पार्टी ही मुख्य प्रतिद्वंद्वी रही हैं तथापि कम्युनिष्ट पार्टियों, राष्ट्रवादी कॉंग्रेस पार्टी तथा बहुजन समाज पार्टी की भी उल्लेखनीय उपस्थिति इन चुनावों मे देखी गयी है। यह बड़ा सवाल है कि नवम्बर-2013 के आगामी विधानसभा चुनावों में बस्तर की बारह सीटों में कैसे समीकरण होने जा रहे हैं?

दक्षिण बस्तर इस समय भयावह स्थितियों से गुजर रहा है। जिन भी प्रत्याशियों की स्थिति का आंकलन करने की कोशिश होती है वहाँ से अंदरूनी इलाको में जा कर अपनी बात न रख पाने की चिंता प्राथमिकता से उजागर होती है। प्रत्याशी और उनके समर्थक केवल उन स्थानो तक ही पहुँच रहे हैं जहाँ उन्हें जीवन सुरक्षित जान पडता है। जितनी राजनैतिक पोस्टरों की संख्या है उतनी ही तादाद में लाल बैनर भी उन क्षेत्रों का सीमांकन कर रहे हैं जहाँ माओवादियों की घोषित उपस्थिति है। वस्तुत: विकास यात्रा और परिवर्तन यात्रा के साथ ही बस्तर में चुनावी बिगुल फूंक दिया गया था और माओवादी पक्ष ने अपनी मजबूत उपस्थिति झीरमघाटी की घटना को अंजाम दे कर सिद्ध कर दी थी। कॉग्रेस की परिवर्तन यात्रा पर हुए हमले को महज एक आतंकवादी वारदात कह कर नजरंदाज नही किया जा सकता क्योंकि उसके स्पष्ट राजनैतिक मायने हैं और घटना के बाद हुई खींचतान का भी वर्तमान चुनावों पर निश्चित ही असर पडने वाला है। वस्तुत: राजनीति भांति भांति के गणित पर आधारित होती है।

उदाहरण के लिये वर्ष-2008 के विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी ने अनेक नये चेहरों को टिकट दिया था और उसके सकारात्मक परिणाम उन्हे प्राप्त भी हुए थे; इस बार यही फारम्यूला कॉग्रेस ने आजमाया है। एसा नहीं कि गणित बिलकुल सीधा है क्योंकि जिनका टिकट कटा वे कितना भितरघात करने की क्षमता रखते हैं यह गुणा-भाग भी घोषित प्रत्याशियों की जीत-हार तय करता है। भाजपा के लिये जहाँ लगातार दस साल तक सत्ता में काबिज रहने के कारण एंटी इनकम्बेंसी का प्रभाव भी परिणामों पर अपनी जगह बना सकता है वहीं अनेको पुराने चेहरों पर फिर से विश्वास दिखाने की उनकी नीति क्या सही सिद्ध होगी यह तो परिणाम ही तय कर सकते हैं।

जिन अवस्थाओं में चुनाव हो रहे हैं, वे जब लोकतंत्र की उपस्थिति पर ही प्रश्न खड़ा कर रहे हैं, एसे में एग्जिटपोल और ओपीनियन पोल की बहुत अधिक सार्थकता बस्तर के संदर्भ में दृष्टिगोचर नहीं होती। यहाँ हर सीट अपने आप में खास है तथा परिणामों पर - खडे होने वाले प्रत्याशियों की संख्या, वोटिंग प्रतिशत, पोलिंग बूथ की अवस्थिति, माओवादियों का क्षेत्र में प्रभाव आदि आदि बहुत मायने रखते हैं। राज्य बनने के पश्चात हुए दो चुनावों में डाले गये मतों के प्रतिशत के आधार पर यदि बस्तर की अलग अलग सीटों पर एक दृष्टि डाली जाये तो यह कहना होगा कि यहाँ क्षेत्रवार वोटिंग पैटर्न भी अपनी ही कहानी कहते हैं तथा उन्हें भी विजय की संभावनाओं का एक घटक मानना ही होगा। 

तालिका – 1: बस्तर में विधान सभा चुनाव परिणाम विश्लेषण वर्ष – 2003

यदि 2003 के चुनाव परिणामों पर एक दृष्टि डाली जाये तो दक्षिण बस्तर पर कांग्रेस का कब्जा था। दंतेवाड़ा, कोण्टा तथा बीजापुर की सीटे उनके द्वारा जीती गयी थीं। यहाँ यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि भाजपा के मुकाबले मतों के अंतर का प्रतिशत दंतेवाडा (16.84%) तथा कोण्टा (34.74%) में बहुत बडा था जबकि बीजापुर में भी कॉग्रेस 8.49% मतो के अच्छे अंतर से विजयी रही थी। दंतेवाड़ा तथा कोण्टा में भाजपा तीसरे नम्बर पर रही थी जबकि यहाँ कम्युनिष्ट पार्टियों ने कॉग्रेस को ठीक ठाक टक्कर देते हुए दूसरा स्थान हासिल किया था। इसके ठीक उलट मध्य एवं उत्तर बस्तर में भारतीय जनता पार्टी ने जो जीत हासिल की वहाँ भी उसने एक बडे अंतर से कॉग्रेस को शिकस्त दी थी जिसमे कि सबसे सबसे उल्लेखनीय हैं – केशलूर (30.86%),  जगदलपुर (28.36%) तथा कांकेर (28.34%)। भारतीय जनता पार्टी को सर्वाधिक संघर्ष के साथ इस चुनाव में भानुप्रतापपुर की सीट हासिल हुई थी जहाँ दोनो प्रमुख पार्टियों के बीच जीत का अंतर केवल 1.33% था। इस चुनाव में आश्चर्यजनक रूप से एनसीपी का प्रदर्शन माकपा/भाकपा  के समकक्ष रहा था व चार विधानसभा सीटों पर उसने तीसरा स्थान प्राप्त किया था। इस चुनाव में बहुजन समाजपार्टी का विशेष प्रभाव तो नहीं देखा गया किंतु उसने अपनी मामूली उपस्थिति जगदलपुर (2.40%), चित्रकोट(3.21%), भानपुरी (3.21%) तथा केशलूर (2.99%) क्षेत्रों में दर्ज करायी थी।

तालिका – 2: बस्तर में विधान सभा चुनाव परिणाम विश्लेषण - वर्ष 2008 

वे परिस्थितियाँ क्या रहीं कि वर्ष-2008 के विचारसभा चुनाव में दक्षिण बस्तर में भी कॉग्रेस कोण्टा को छोड कर कोई भी सीट नहीं बचा सकी। कोण्टा की सीट को भी कांटे की टक्कर ही कहना होगा चूंकि यह पूरी तरह से त्रिकोणीय मुकाबला सिद्ध हुआ जिसमे आश्चर्यजनक रूप से भाजपा को दूसरा (31.12%) तथा माकपा को तीसरा (30.12%) स्थान हासिल हुआ जबकि केवल 0.28% मतो की बढत के साथ कॉग्रेस के कवासी लकमा ने पहला (31.40%) स्थान प्राप्त किया था। इसी तरह दंतेवाडा का मुकाबला यद्यपि भाजपा ने बडे अंतर (12.99%) से जीता तथापि भाकपा ने दूसरा स्थान प्राप्त किया था। दंतेवाडा सीट पर शिवसेना की उपस्थिति भी 6.14% वोटो के साथ महत्वपूर्ण थी। निर्दलीय प्रत्याशियों का भी शानदार संघर्ष इस चुनाव की विशेषता थी;  कांकेर से निर्दलीय प्रत्याशी चन्द्रप्रकाश ठाकुर ने 10.52% वोट हासिल किये थे जबकि भानुप्रतापपुर से निर्दलीय प्रत्याशी मनोज मंडावी को 24.07 प्रतिशत वोट मिले थे और उन्होंने क्षेत्र में कॉग्रेस को तीसरे नम्बर की पार्टी बना दिया था। मुख्य मुकाबले से एक कदम पीछे चलते हैं और बस्तर मे तीसरे प्रमुख दल अर्थात वामदलों के चुनावी प्रदर्शन तथा संभावनाओं पर एक दृष्टि डालते हैं।

चित्र -1: वामदलों का वर्ष 2003 के चुनावों में प्रदर्शन

वर्ष 2003 के चुनावों में कोण्टा और दंतेवाड़ा को छोड कर शेष सभी सीटों पर वालदल लगभग अनुपस्थित रहे अर्थात उन्हें 15% मत भी प्राप्त नहीं हुए थे।  कांकेर एवं कोण्डागांव में वामदलों का खाता भी नहीं खुला था।   

चित्र -2: वामदलों का वर्ष 2008 के चुनावों में प्रदर्शन

वामदलो की हालत को वर्ष 2008 के चुनाव और भी पतला कर देते हैं जहाँ कि वे अधिकतम सीटों पर 5% से भी कम वोट शेयर के साथ दिखाई पडते हैं तो अंतागढ, केशकाल, भानुप्रतापपुर और कोण्डागाँव में पूरी तरह अनुपस्थित हो जाते हैं। संभवत: अपनी इस दयनीय हालत की भरपाई उन्होंने दक्षिण बस्तर में अपना वोटशेयर बढा कर की थी जो कि लगभग 25 से 30% तक उनके हिस्से में गया था। इस तरह वे कोई सीट भले ही न निकाल पाये हों किंतु यह सिद्ध करने में कामयाब रहे थे कि इस बार भी दक्षिण बस्तर में चुनावी मुकाबला त्रिकोणीय ही होगा। 

उपरोक्त विवेचना को सही सिद्ध करते हुए कोण्टा विधानसभा सीट में त्रिकोणीय मुकाबला स्पष्ट्त: देखा जा रहा है। कम्युनिष्ट पार्टी के उम्मीदवार मनीष कुंजाम इस बार अच्छी स्थिति में नजर आ रहे हैं किंतु कवासी लकमा को और दरभाघाटी के कारण कांग्रेस के पक्ष में जाती संवेदनाओं को भी कमतर नहीं समझा जा सकता। इस सीट पर सीधी रेस है और देखना दिलचस्प होगा कि क्या कोण्टा सीट जीत कर इस बार वामदल अपना खाता खोल पाते हैं? दक्षिण बस्तर की दंतेवाड़ा सीट पर मुकाबला कॉग्रेस और भाजपा के बीच अधिक नज़र आता है। बैलाडिला में मजदूर संगठनों में कई फाड हो गये हैं; अब ये मजदूर संगठन वाम राजनीति को सीधे प्रभावित करने की स्थिति में नहीं रह गये हैं। महेन्द्र कर्मा इस बार दंतेवाड़ा सीट से मजबूत नजर आ रहे थे किंतु माओवादियों द्वारा उनकी हत्या के पश्चात इस क्षेत्र में उभरी सहानुभूति क्या कॉंग्रेस को यह सीट दिला पायेगी, यह देखना दिलचस्प होगा? बीजापुर से महेश गागडा भरतीय जनता पार्टी के युवा प्रत्याशी हैं जिसपर पार्टी द्वारा पुन: भरोसा जताया गया है। बीजापुर में मतदान हमेशा से एक चुनौती रहा है पिछले दोनो चुनावों में यह क्रमश: 37.07% तथा 29.20% ही रहा है। एसी स्थिति में मतदान का कम होना अथवा अधिक होना भी प्रत्याशियों की सांस उपर-नीचे करता रहेगा। कॉग्रेस के उम्मीदवार विक्रम मण्डावी पिछले चुनाव के 24.11% के मत अंतर को काटने के लिये श्रम करते दिखाई पड रहे हैं किंतु यहाँ उनकी ही पार्टी के एक अन्य असंतुष्ट टिकिटार्थी द्वारा भितरघात की बाते भी कही जा रही हैं। 

चित्रकोट, जगदलपुर, बस्तर तीनो ही मध्य बस्तर के विधानसभा क्षेत्रों में इस बार भी द्विपक्षीय मुकाबले की ही संभावना है। चित्रकोट से भाजपा के उम्मीदवार बैदूराम कश्यप चुनाव के मुकाबले कॉग्रेस के प्रत्याशी दीपक वैज एक नया चेहरा हैं जिनका प्रयोग संभवत: मौजूदा विधायक के खिलाफ एंटी इनकम्बेंसी की भावना को वोटो में तब्दील करने के लिये किया गया है। चित्रकोट विधानसभा में माकपा की भी सशक्त उपस्थिति है (18.51%), जिसे कोई भी राजनैतिक दल हल्के में नहीं ले सकता। जगदलपुर में कॉग्रेस ने सामान्य विचानसभा सीट होने के बाद भी आदिवासी कार्ड खेलने का यत्न किया है। यहाँ से कॉग्रेस के शामू कश्यप भाजपा के मौजूदा विधायक संतोष बाफना के खिलाफ लड रहे हैं। बीजापुर से टिकट न मिलने से नाराज भाजपा के नेता राजाराम तोडेम ने पार्टी छोड कर स्वाभिमान मंच से लडना निश्चित किया है। यह एक तरह का भितरघात है जो संतोष बाफना के खिलाफ जा सकता है। यदि पिछले चुनाव में भाजपा की जीत का अंतर देखा जाये तो यह 15.32% थी जिसे पाटना कॉग्रेस के लिये वास्तविक चुनौती है। जगदलपुर तथा मध्य बस्तर की अन्य सीटों से प्रत्याशी बडी मात्रा में खडे होते हैं तथा उनके द्वारा वोटों का बटवारा भी सीधे जीत-हार के गणित को प्रभावित करता है। बस्तर सीट की बात करें तो यहाँ पिछले चुनावों में डॉ. सुबाहू कश्यप (भाजपा) और लखेश्वर बघेल (कॉग्रेस) के बीच हारजीत केवल 1.23% वोटो के अंतर से तय हुई थी। मध्य बस्तर चुनाव के लिहाज से अपेक्षाकृत शांत क्षेत्र है अत: प्रत्याशियों की हलचल और चुनाव के दंगल का नज़ारा यहाँ बखूबी देखा जा सकता है; शहरी और मैदानी क्षेत्रों के लिये चुनाव वैसे भी उत्सव ही बन जाते हैं।  

उत्तर बस्तर की ओर आते ही स्थितियाँ पुन: संघर्ष की जान पडती हैं। नारायणपुर सीट पर केदार कश्यप मजबूत प्रत्याशी हैं। प्रतिद्वंद्वी से पिछले चुनावी नतीजों में 24.47% वोट अंतर के कारण नारायणपुर सीट भाजपा के पक्ष में जाती प्रतीत होती है। यह स्थिति अंतागढ में उलट जाती है; विक्रम उसेंडी को अपनी ही पार्टी से अलग हुए भोजराक नाग का न केवल विरोध झेलना है जो उनके वोट काट सकते हैं अपितु कॉग्रेस के उम्मीदवार मंगतूराम पवार भी एक मजबूत प्रत्याशी हैं। इस क्षेत्र में खास कर पखांजूर और आसपास, दण्डकारण्य परियोजना के तहत विस्थापित हो कर आये बंगाली शरणार्थियों (नामशूदों) का वर्चस्व है। इन शरणार्थियों की बडी तादाद संगठित हो कर वोट देती है और उन्होंने प्रमुखता से स्वयं को अनुसूचित जाति में सम्मिलित किये जाने की माँग उठाई हुई है। यह देखना होगा कि किस प्रत्याशी का आश्वासन से विस्थापित बंगाली समाज लपक लेता है और उसकी जीत में अपनी भूमिका निभाता है। अंतागढ में 2008 के चुनावों में भाजपा की जीत का अंतर केवल 0.03% था अर्थात केवल 109 वोट से विक्रम उसेंडी जीत हासिल कर सके थे अत: यह दिलचस्प सीट सिद्ध होने जा रही है। केशकाल विधानसभा सीट में निर्दलीय उम्मीदवार ही यदि त्रिपक्षीय मुकाबला खडा कर सकें तभी चुनाव रोचक होगा अन्यथा तो भाजपा के सेवकराम नेताम और कॉग्रेस से संतराम नेताम आमने सामने भिडने वाले हैं। पिछले चुनाव में जीत का अंतर दोंनो प्रमुख पार्टियों के बीच महज 7.73% था जो सुरक्षित दूरी किसी लिहाज से नहीं है। यही स्थिति कमोबेश कोण्डागाँव में भी है जहाँ वर्तमान में भाजपा की विधायक लता उसेंडी चुनाव लड रही हैं। केवल 2.62% मतो के अंतर से भाजपा ने पिछले चुनाव में कोण्डागाँव सीट पर जीत दर्ज की थी। यहाँ कॉग्रेस की अंदरूनी लडाई के कारण उनके लिये अंगूर खट्टे भी हो सकते हैं। मोहन मरकाम को फिर से कॉग्रेसी उम्मीदवार बनाने से नाराज शंकर सोढी (भूतपूर्व सांसद मानकू राम सोढी के बेटे) के निर्दलीय लडने से त्रिपक्षीय समीकरण बनने लगे हैं। यद्यपि शंकर सोढी 2008 में भी निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में केशकाल से लडे थे और उन्हें केवल 4627 (4.36%) मत ही प्राप्त हुए थे। कांकेर विधानसभा सीट पर भाजपा ने वर्तमान विधायक की टिकट काट दी है तथा नये उम्मीदवार के रूप में संजय कोडोपी को मैदान में उतारा है। पिछले चुनाव में भाजपा ने बडे अंतर (16.78%) से कॉग्रेस को हराया था अत: प्रश्न सामने हैं कि क्या कॉग्रेस के उमीदवार शंकर धुर्वा मतो की यह खाई पाट सकते हैं? यह ध्यान देने योग्य बात है कि तीसरा पक्ष वर्ष 2008 के विधानसभा चुनावों में लगभग नगण्य था; यहाँ से 2.95% वोट कम्युनिष्ट दल के हिस्से तो महज 4.12% वोट बसपा के खाते में दर्ज हुए थे। बिलकुल कांकेर वाली स्थिति भानुप्रतापपुर की भी है जहाँ मौजूदा विधायक का टिकट काट कर भाजपा ने रुक्मिणी ठाकुर को मैदान में उतारा है। कॉग्रेस के प्रत्याशी मनोज मण्डावी को पिछले चुनावों के 15.83% मतों के अंतर से जूझना होगा।

चित्र -3: चुनावों में जीत का अंतर (प्रतिशत में)


चुनावी गणित में मतो के अंतर अवश्य मायने रखते हैं किंतु मतदान कितना हुआ इस पर सभी राजनीतिक दलों की निगाह रहती है। सुरक्षा कारणों से निर्वाचन आयोग ने अनेक मतदान केन्द्रों को अस्थाई रूप से स्थानांतरित कर दिया है। उदाहरण के लिये अंतागढ के सोलह मतदान केन्द्रों को दूसरे स्थानों पर ले जाया गया है। इस कदम के अपने पक्ष-विपक्ष हैं तथा यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि क्या जिन गावों में नक्सली भय से लोग मतदान के लिये बाहर ही नहीं आते वे नये बूथों तक पहुँचेंगे? जिन बूथों से गावों की दूरी कई किलोमीटर बढ गयी है क्या वह मतदान प्रतिशत में गिरावट का एक कारण नहीं सिद्ध होगी? कई पत्रकार मित्रों ने नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में चुनाव की स्थिति को ले कर अपने अनुभव मुझसे साझा किये हैं। जो बात बाहर निकल कर आयी है वह सु:खद आश्चर्य पैदा करती है चूंकि आदिवासी मतदान में भाग लेना चाहते हैं। कई ग्रामीणों ने खुल कर कहा कि वे अगर वोट नहीं डालेंगे तो सडक, बिजली पानी जैसी बुनियादी आवश्यकताओं पर उनका हक समाप्त हो जायेगा। वस्तुत: सबसे बडा लोकतंत्र विवश है चूंकि आज भी एसे तंत्र विकसित नहीं हो सके जिससे कि हर इच्छुक मतदाता अपनी राय जाहिर करने के लिये उपस्थित हो सके भले ही वह “इनमे से कोई नहीं” वाले बटन को चटखा कर चला आये। चुनावों को प्रभावित करने वाला एक बडा पक्ष है बस्तर के अंदरूनी क्षेत्रों से विस्थापन। सलवा जुडुम की समाप्ति के साथ ही हजारों विस्थापित आदिवासी परिवारों के साथ अपनी पुनर्स्थापना की दिक्कते आने लगीं। यह भी समझने योग्य बात है कि नक्सलवाद भी बडे पैमाने पर विस्थापन को जन्म देता है तथा परिवार के परिवार भय से अथवा मुखबिर करार दिये जाने के बाद अपनी जमीन छोड देने के लिये बाध्य हो जाते हैं। यह एक बडा आंकडा है जो मतदाताओं की सूची के बहुतायत उपस्थित नामों को केन्द्रों से गायब पाता है। हमारे चुनाव विश्लेषण इन विस्थापितों के महत्व को हमेशा ही नजरंदाज कर देते हैं। एक सही चुनाव के लिये वास्तविक मतदाता और सही मतप्रतिशत की आवश्यकता है अन्यथा विजय खोखली ही है। प्रस्तुत आंकडे बस्तर के चुनाव की जो भी दिशा-दशा बताते हों इनमे विस्तापित आदिवासी अनुपस्थित हैं। यही कारण है कि इस प्रश्न से बचा नहीं जा सकता कि क्या हमारे चुनाव वास्तविक लोकतंत्र के प्रतिनिधि हैं? 

-राजीव रंजन प्रसाद 
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