Wednesday, April 03, 2013

अन्नमदेव की बस्तर विजय।



व्यवस्था परिवर्तन कभी भी अ-कारण नहीं होता। शासक और शासित के बीच दूरियाँ जितनी बढती जाती हैं असंतोष का लावा मार्ग बनाने लगता है। एसे में कभी जनता ही आक्रामक हो उठती है तो कभी आक्रांता बेधड़क चला आता है और उसका कोई प्रतिवाद नहीं होता। छिंदक नाग शासकों नें प्राचीन बस्तर क्षेत्र पर लगभग 564 वर्ष (760 – 1324 ई. तक) तक शासन किया और उनकी अनेक उपलब्धियाँ रहीं जिससे इनकार नहीं किया जा सकता; तथापि धीरे धीरे केन्द्रीय शक्ति के अभाव में यह पूरा क्षेत्र अनेक नाग-शासकों/सरदारो व शक्तिशाली सामंतो नें हथिया लिया। प्रभाव क्षेत्र पाँच या दस कोस लेकिन उपाधि राजा। कुछ मजबूत गढ अवश्य थे किंतु आपसी लडाईयों के कारण उन्हें अब सुरक्षित नहीं कहा जा सकता था। अन्नमदेव का बस्तर प्रवेश परिस्थितिजन्य था न कि योजनाबद्ध। मुट्ठी भर सामंतो और गिनती के सैनिकों के साथ वारंगल से पलायन करने वाला एक सरदार एक वृहत जानजातीय आबादी वाले एसे भूभाग को बडी ही सहजता से अधिकृत कर लेता है जहाँ की प्रजा ही विद्रोही प्रवृत्ति की मानी जाती हो तो विषद विवेचना आवश्यक है। चक्रकोटय (प्राचीन बस्तर) में अनुकूल परिस्थितियाँ थीं; यह क्षेत्र नाग राजाओं और उनके सामंतो की आपसी लड़ाईयों से टूट चुका था। इतिहासकार नर्मदाप्रसाद श्रीवास्तव अपने एक आलेख में विवेचना करते हुए लिखते हैं कि नाग - एक एक गाँव, बगीचा या तालाब के लिये लड़ मरने वाले पंच कोसीराजा रह गये थे। प्रजा इनके आपसी विवादों से त्रस्त थी। वस्तुत: एसे में आम जन की साँप छुछुन्दर वाली गति हो जाती थी....किस सामंत का साथ दें और किसका न दें। यही हालात अन्नदेव के लिये लाभकारी हुए। स्थानीय ही उनके सहायक और मुखबिर बनते गये।

बस्तर पर कार्य करने वाले आरंभिक सभी इतिहासकारों नें अन्नमदेव तथा उसके वंशजों को काकतीयवर्गीकृत किया है जिनमे जेकिंसन (1827), इलियट (1856), टेम्पल (1862), ग्लसफर्ड (1862), रसेल (1908), दि ब्रेट (1909), ग्रिग्सन (1938) तथा एल्विन (1947) आदि प्रमुख हैं। यहाँ तक कि राजवंश के अंतिम शासक प्रवीर चन्द्र भंजदेव (1936-1947 ई.) भी राजवंशावली को काकतीयही निरूपित करते हैं जबकि डॉ. हीरालाल शुक्ल सहित अनेक इतिहासकारों नें नयी व्याख्या प्रस्तुत की है जिसके आधार पर बस्तर पर 1324 ई. से शासन करने वाले राजपरिवार को चालुक्यमाना गया है। चालुक्य मानने के पीछे के तथ्य वारंगल से प्राप्त होते हैं। वारंगल के काकतीय राजा गणपति (1199-1261 ई.) की दो पुत्रियाँ थीं रुद्राम्बा और गणपाम्बा। उनके देहावसान के बाद उनकी बड़ी पुत्री रुद्राम्बा ने सत्ता संभाली। चालुक्य राजा वीरभद्रेश्वर से महारानी रुद्राम्बा का विवाह हुआ था। इस दम्पत्ति को कोई पुत्र नहीं था। उनकी एक मात्र संतति थी - पुत्री मम्मड़म्बा। राजकुमारी मम्मड़म्बा को विवाह के पश्चात दो पुत्र हुए - प्रतापरुद्र तथा अन्नमदेव। [यही विवाह सम्बन्ध इतिहासकारों को चालुक्य वंश के साथ अंतर्सम्बन्ध स्थापित करने की दिशा देता है। इस विवाद में न पडते हुए प्रचलित मान्यता काकतीयको ही प्रस्तुत आलेख में लिया गया है।] तकनीकी रूप से तथा पितृसत्तात्मक समाज की व्याख्याओं के अनुरूत यह सत्य स्थापित होता है कि चालुक्य राजा से विवाह के पश्चात महारानी रुद्राम्बा का पिता की वंशावलि पर अधिकार समाप्त हो गया। तथापि भावनात्मक रूप से अथवा स्त्री अधिकारों पर विमर्श के तौर पर मुझे यह तथ्य रुचिकर प्रतीत होता है कि काकतीय वंशावली के रूप में यह राजवंश अधिक प्रमुखता से जाना गया है। यहाँ तक कि महारानी प्रफुल्ल कुमारी देवी (1921 - 1936 ई.) जिनका विवाह भंज वंश से जुडे राजकुमार से किया गया था; तत्पश्चात के सभी वंशजों नें अपने नाम के साथ भंज अवश्य जोडा किंतु अंतिम महाराजा प्रवीर स्वयं को प्रवीर चंद्र भंजदेव काकतीयकहलाना ही पसंद करते थे। यह परम्परा मुझे स्तुत्य, महत्वपूर्ण तथा एक अनुकरणीय उदाहरण प्रतीत होती है। वंशावलियाँ और रक्तशुद्धतायें महज प्रतीक है तथा यह एक आवरण है जो पृथक्करण करता है। यहाँ वह कहावत उचित प्रतीत होती है कि नाम में क्या रखा है?’ साथ ही यह भी कि पिता और माता यदि सत्तायें न हो कर समान अधिकारी होते तो वंशावलियों पर पाथापच्चियों की आवश्यकता नहीं रही होती। अगर दत्तकपुत्र वंश परम्पराओं को जीवित रखते थे तो पुत्रियों के शासन से विभाजक रेखायें क्यों खींची जाये? अत: यह इतिहासकारों की बहस का विषय होगा कि प्रतापरुद्र एवं अन्नमदेव काकतीय थे अथवा चालुक्य; एक लेखक के तौर पर मुझे काकतीय ही इस राजवंश की अधिक सटीक पहचान लगती है। प्रतापरुद्र (1290 – 1324 ई.) ने दक्षिण के बड़े क्षेत्र को अपने आक्रामक सैन्य अभियान से वारंगल का हिस्सा बना लिया था। इन दिनों मुसलमान आक्रांताओं की गिद्धदृष्टि समृद्ध दक्षिण भारत पर थी। वारंगल पर लगातार हो रहे हमलों के बीच प्रतापरुद्र के छोटे भाई अन्नमदेव नें चक्रकोट्य का रुख किया जहाँ बिखरा हुआ नाग राजवंश आखिरी साँसे ले रहा था।

अन्नमदेव जब बस्तर की ओर बढ रहे होंगे तो बहुत सा मंथन उनका विमर्श बना होगा। अब तक वे दक्षिण भारत के उस राजवंश का प्रतिनिधित्व कर रहे थे जो समृद्ध था, शक्तिशाली था और इसी कारण से तुगलकों नें उन्हें रौंद दिया। हाथियों, घोड़ों व ऊंटों पर लाद कर वारंगल का खजाना दिल्ली ले जाया गया। कहते हैं कोहिनूर हीरा इसी लूट का हिस्सा था जिसे नुमाईश के बाद सुलतान को भेट किया गया। एक धनी राज्य क्या सुरक्षित नहीं हैं? इस दौर में प्रत्येक धनाड्य व शक्तिशाली साम्राज्यों पर मुसलमान आक्रांताओं की दृष्टि थी तथा अन्नम देव के बड़े भाई प्रतापरुद्र की सत्ता का वारंगल में पतन इन्ही कारणों से हुआ था। इतिहासकार नर्मदा प्रसाद श्रीवास्तव नें नाग-काकतीय संघर्ष की जो बानगी अपने आलेखों के द्वारा प्रस्तुत की है उससे बेहतर विवरण इस सम्बन्ध में किसी इतिहासकार नें प्रस्तुत नहीं किया है। उनके आलेखों (बस्तर एक अध्ययन; 1992) के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि अपनी बिखरी हुई शक्ति का संचय कर अन्नमदेव नें लगभग 1330 ई. के आसपास गोदावरी एवं इन्द्रावती नदियों के संगम पर भद्रकाली के निकट अपना पड़ाव डाला।

अन्नमदेव का विजय अभियान भोपालपट्टनम से आरंभ हुआ। अन-अपेक्षित आक्रमण से घबरा कर भोपालपट्टनम का राजा बिना लडे ही पलायन कर गया। नाहरसिंह पामभोई को अन्नमदेव नें यहाँ का सामंत नियुक्त किया तथा यहाँ से वे बीजापुर की ओर बढ गये; थोडे से ही संघर्ष के बाद यह क्षेत्र भी हथिया लिया गया। ठीक इसी समय अन्नमदेव के एक अन्य वफादार सामंत सन्यासी शाह नें महाराष्ट्र के अहेरी-सूरजगढ की ओर से चक्रकोटय के पश्चिमी भाग पर आक्रमण किया तथा कांडला पर्ती के नाग राजा को पराजित कर उसने पासेबाड़ा, फरसेगढ, गुदमा, तोयनार आदि गढ हथिया लिये। इसी सम्बन्ध में अतीत से एक रोचक कथा का उल्लेख प्राप्त होता है। संयासी शाह नें कांडला पर्ती के स्थान पर कुटरू को अपनी राजधानी के तौर पर चुना। कहते हैं कि विजयोपरांत वह एक पेड़ के नीचे विश्राम कर रहा था और वहाँ निरंतर किसी पक्षी का मोहक स्वर कुट-कुट-कुटरसुनाई पड़ रहा था। इस ध्वनि से संयासी शाह इतना प्रभावित हुआ कि उसने अपने विजित राज्य का नाम ही कुटरू रख दिया। संयासी शाह नें इन विजित क्षेत्रों को अन्नमदेव को समर्पित कर दिया। कहते हैं कि वारंगल में तुलगकों से मिली पराजय से हताश सामंत एक एक कर अन्नम देव से अपने सैनिकों-संसाधनो सहित इसी प्रकार मिलते रहे जिससे उनका विजय अभियान सफलताओं के साथ संचालित होता रहे। एसे ही कुछ सामंतो नें चेरला की ओर से बीजापुर तथा निकटवर्ती क्षेत्रों कोतापल्ली, पामेड़, फोतकेल तथा गंगालूरपर अधिकार कर ये इलाके नाग राजाओं से हथिया लिये और इन्हें अपने नेता अन्नमदेव को समर्पित कर दिया। कोतापल्ली और पामेड़ में गोंड जाति के सामंत तथा फोतकेल में राउत जाति का सामंत नियुक्त कर प्रशासन को जनजातिगत प्रतिनिधित्व देने और किसी भी स्थिति मे जन-असंतोष न पनपने देने की वृत्ति सम्मिलित थी। दंतेवाडा के भी नाग राजाओं नें अल्पकालिक प्रतिरोध के पश्चात अन्नमदेव को अपना राजा मान लिया। इसके साथ ही गढमिरी कटेकल्याण तथा किलेपाल पर अधिकार हो गया। वहाँ के नाग शासकों को ही सामंत घोषित कर दिया गया। अन्नमदेव नें इन क्षेत्रों से पुन: किसी युद्ध की संभावना को टालने के लिये तेलंगा और हलबा जाति के सैनिक नियुक्त किये थे। यहाँ से विजय अभियान हमीरगढ पहुँचा; इस समय तक अन्नमदेव एक बडे क्षेत्र के शासित तथा समुचित रूप से शक्तिशाली हो गये थे। मौके की नज़ाकत को समझते हुए हमीरगढ के राजा रामचन्द्र देव नें तीरथगढ, चन्द्ररगिरि, मुण्डागढ, छिंदगढ तथा सुकमा के अपने मित्र राजाओं के साथ मिल कर अन्नमदेव का स्वागत किया व उनकी आधीनता स्वीकार कर ली। एसी स्थिति में किसी तरह की नयी व्यवस्था को थोपने की आवश्यकता नहीं रह गयी थी; तथापि अपने एक सम्बन्धी को सुकमा का सामंत नियुक्त कर सभी गढ यथावत रहने दिये गये। स्थान स्थान पर प्रबंधन को कसने की दृष्टि से इन क्षेत्रों में धुरवा जाति के सैनिकों की चौकियाँ स्थापित की गयीं। केशलूर के अंतर्गत एर्राकोट, पाराकोट, मठकोट, रैकोट और मुरुमगढ आते थे जिनपर अधिकार करने के लिये किसी युद्ध की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। माडपाडगढ तथा बागराउडगढ विजय अभियान के अगले हिस्से थे जिनपर अधिकार कर उन्हें कोरामी जाति के सरदारों को सौंप दिया गया। कोटपाड़ (वर्तमान ओडिशा में सम्मिलित) इलाके के लिये सैन्य अभियान चलाया गया तथा वहाँ के राजा विक्रमदेव को ही पराजय स्वीकार करने के पश्चात कुछ शर्तों के साथ सामंत का दर्जा दे दिया गया। छुटपुट संघर्ष तो पोड़ागढ, शालमीगढ, उमरकोट रायगढा में भी हुए किंतु अन्नमदेव के विजय अभियान को रोका जाना संभव नहीं हो सका था। अन्नमदेव के राज्य की उत्तरी सीमा पैरी नदी नें निर्धारित की इधर कांकेर के राजाओं से भी संधि हो गयी थी एवं उनसे अन्नमदेव को देव-डोंगरी परगना भेंट स्वरूप प्राप्त हुआ था। कांकेर से लगा दादरगढ इलाका भी बिना युद्ध के ही अन्नमदेव के राज्य विस्तार का हिस्सा बन गया। अब अन्नमदेव के लिये अपने अभियान को एक राज्य का स्वरूप देने का समय आ गया था। बडे-डोंगर को उन्होंने अपनी पहली राजधानी बनाया। यहाँ अन्नमदेव नें अपनी आराध्य देवी माँ दंतेश्वरी का मंदिर बनवाया तथा राजधानी में 147 तालाब भी खुदवाये थे। इसी मंदिर के सम्मुख एक पत्थर पर बैठ कर अपना उन्होंने अपना विधिवत राजतिलक सम्पन्न करवाया। स्वाभाविक है कि इस समय उनके पास न राजमहल रहा होगा न ही सिंहासन। डोंगर के इसी पत्थर पर राजतिलक एक परम्परा बन गयी जिसका निर्वाह अंतिम शासक प्रवीर तक निरंतर होता रहा एवं इस प्रथा को पखनागादी कहा जाता था। अन्नमदेव के राज्य का नाम बस्तर प्रचलित हुआ।

राजतिलक के पश्चात भी अन्नमदेव का युद्धाभियान समाप्त नहीं हुआ था। उनकी शासन परिधि के भीतर अब भी अनेक नाग शासित क्षेत्र थे जिनमें से भ्रमरकोट तथा चक्रकोट शक्तिशाली सत्तायें थीं। भ्रमरकोट को हासिल करने में बड़ा युद्ध नहीं करना पडा अपितु शीघ्र ही इसके आधीन मरदापाल, मधोता, राजपुर, मांदला, मुण्डागढ, बोदरापाल, केशरपाल, कोटगढ, राजनगर, भेजरीपदर, भ्रामरकोट आदि पर अन्नमदेव का अधिकार हो गया। गढिया, धाराउर, करेकोट, गढ-चंदेला आदि चक्रकोट के आधीन क्षेत्र थे जिन पर नाग राजा हरिश्चंद देव का शासन था। भीषण युद्ध हुआ और प्रथम चरण में अन्नमदेव को पीछे हटना पड गया। बारसूर तथा किलेपाल से सैनिक सहायता मँगा कर पुन: धावा बोला गया जिसमें हरिश्चंददेव वीरगति को प्राप्त हुए एवं इसके साथ ही अन्नमदेव का सैनिक अभियान पूरा हो सका। इस तरह काकतीय/चालुक्य शासित बस्तर राज्य 1324 में अस्तित्व में आया। इतिहासकार डॉ. हीरालाल शुक्ल के अनुसार (बस्तर के चालुक्य एवं गिरिजन, 2007) अन्नमदेव के राज्य में बारह जमींदारियाँ, अढ़तालीस गढ़, बारह मुकासा, बत्तीस चालकी और चौरासी परगने थे। जिन प्रमुख गढ़ों या किलों पर अधिकार कर बस्तर राज्य की स्थापना की गयी वो हैं - मांधोता, राजपुर, गढ़-बोदरा, करेकोट, गढ़-चन्देला, चितरकोट, धाराउर, गढ़िया, मुण्डागढ़, माड़पालगढ़, केसरपाल, राजनगर, चीतापुर, किलेपाल, केशलूर, पाराकोट, रेकोट, हमीरगढ़, तीरथगढ़, छिन्दगढ़, कटेकल्याण, गढ़मीरी, कुँआकोण्ड़ा, दंतेवाड़ा, बाल-सूर्य गढ़, भैरमगढ़, कुटरू, गंगालूर, कोटापल्ली, पामेंड, फोतकेल, भोपालपट्टनम, तारलागुड़ा, सुकमा, माकड़ी, उदयगढ़, चेरला, बंगरू, राकापल्ली, आलबाका, तारलागुड़ा, जगरगुण्ड़ा, उमरकोट, रायगड़ा, पोटगुड़ा, शालिनीगढ़, चुरचुंगागढ़, कोटपाड़.......।

सभी विवरणों को गंभीरता पूर्वक देखने पर यह महसूस होता है कि नाग युगीन बस्तर एक विभाजित सत्ताओं का केन्द्र था तथा आपसी मतभेद इतने अधिक व्यापक थे कि एक जुट हो कर आक्रांता से लडने का प्रयास ही नहीं किया गया। अन्नमदेव जिस दिशा में गये वहाँ की सत्ता जैसे झोली में आ गिरी। स्थानीय जनजातियों का भी कोई विरोध न होना यह स्पष्ट करता है कि शासक और जनता के बीच के संबंध मधुर नहीं थे। इसके साथ ही अन्नमदेव समझदारी के साथ अधिकृत क्षेत्रों पर वैसे सामंतो की ही नियुक्ति कर रहे थे जिनसे स्थानीय समर्थन बना रहे एवं युद्धकाल में नये मोर्चे न खुलें। यह वारंगल के शासकों का शासनानुभव था जिसके फलस्वरूप युद्ध और विजित क्षेत्रों में प्रशासन प्रबंधन साथ साथ किया जाता रहा। अन्नमदेव की दूरदर्शिता इस मायने में प्रसंशनीय कही जायेगी कि उन्होंने जहाँ तक संभव हुआ प्राचीन स्थापनाओं को मजबूत ही किया तथा स्थानीयता को उसी स्वरूप में मान्यता देने की कोशिश की। किसी क्रूर आक्रांता होने के स्थान पर वे सहिष्णु विजेता की छवि प्रस्तुत कर रहे थे तहाअधिकतम पुराने सामंतो अथवा जनजाति के सरदारों को ही प्रशासन में ओहदे प्रदान करते चल रहे थे। बस्तर का जो वर्तमान स्वरूप है उसे बहुत हद तक प्रशासन के नीचे आकार देने का श्रेय अन्नमदेव को ही जाता है।

No comments: