Saturday, August 05, 2017

वीर गेंद सिंह की शहादत (बस्तर: अनकही-अनजानी कहानियाँ, भाग – 48)


परलकोट नैसर्गिक स्थल है। उसकी सीमा को एक ओर से कोतरी नदी निर्धारित करती है। तीन नदियों का संगम परलकोट की सुन्दरता को चार चाँद लगा देता है। यहाँ के जमीन्दार को भूमिया राजा की उपाधि प्राप्त थी। ऐसी मान्यता है कि उनके पूर्व-पुरुष चट्टान से निकले थे। बस्तर के राजा भी इस किंवदंति को मान्यता देते थे इस लिये परलकोट के जमीन्दार को राज्य में विशेष दर्जा और सम्मान हासिल था, जो मराठा-आंग्ल शासन ने अमान्य कर दिया। गेन्दसिंह इस बात से आहत थे। उनके नेतृत्व में परलकोट विद्रोह (1825 ई.) ने आकार लिया। धावड़ा वृक्ष की टहनियों को विद्रोह के संकेत के रूप में एक गाँव से दूसरे गाँव भेजा गया। पत्तियों के सूखने से पहले ही टहनी पाने वाले ग्रामीण, विद्रोही सेना के साथ मिल जाते थे। लोगों को संगठित करने तथा योजना बनाने में घोटुलों ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। धनुष-वाण, कुल्हाड़ी और भाला ले कर हजारों की संख्या में वीर अबूझमाड़िये निकल पड़ते, फिर कभी मराठा संपत्ति जला दी जाती तो कही उनके व्यापारिक या सैनिक काफिले लूट लिये गये। गेन्द सिंह ने चमत्कार कर दिखाया। अब तक राजा या सामंत के लिये मर-मिटने वाले अबूझमाड़िये अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे थे। स्वयं पर अपनी मर्जी के शासन का हक पाने के लिये बहुत कम संघर्ष इतिहास में दर्ज हैं। इसके साथ ही इस विद्रोह में नये टैक्सों की खिलाफत भी थी। छतीसगढ़ सूबे के ब्रिटिश अधीक्षक मेजर एगन्यू को सीधा हस्तक्षेप करना पड़ा। चाँदा से सेना बुला ली गयी, पुलिस अधीक्षक कैप्टन पेव को निर्देश दिये गये कि परलकोट विद्रोह को निर्ममता से कुचल दिया जाये। बंदूखों के आगे परम्परागत हथियारों से नहीं लड़ा जा सकता था। 20 जनवरी 1825, को विद्रोह का पूरी तरह से दमन करने के पश्चात परलकोट परगने की प्रजा और दूर-सुदूर से हजारो अबूझमाड़ियाओं के सामने निर्दयता से एक पेड़ की टहनी पर उपर खींच कर गेन्द सिंह फाँसी पर लटका दिये गये। बस्तर भूमि वीर गेंदसिंह की इस शहादत का आज भी पूरी श्रद्धा से स्मरण करती है। 

- राजीव रंजन प्रसाद
========== 

No comments: